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श्रमणविद्या-३
प्रकृतिबन्ध - 'प्रकृति का अर्थ है स्वभाव' । अन्य कारणों से निरपेक्ष कर्मों का जो मूल स्वभाव है, वह 'प्रकृति बन्ध' कहलाता है। प्रकृति, शील और स्वभाव ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। (प्रकृतिबन्ध संबंधी तालिका अंत में देखें)
स्थितिबन्ध – कर्मों का विभाजन उनके स्थिति काल के आधार पर भी किया जा सकता है। कुछ कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं और कुछ कर्म हजारों वर्ष का समय लेते हैं। यह समय परिमाण ही 'स्थितिबन्ध' हैं । 'स्थिति' का अर्थ है अवस्थान काल, यह गति से विपरीत अर्थ का वाचक है। ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है। यह निश्चित काल ही कर्मों का स्थिति बन्ध कहलाता है। तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु को छोड़कर सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध उत्कट संक्लेश परिणाम से होता है और जघन्य बन्ध उत्कट विशुद्ध परिणाम से होता है।
अनुभाग बन्ध - विविध कर्मों के पाक अर्थात् फल देने की शक्ति को 'अनुभव' या 'अनुभाग' कहते हैं। 'अनुभाग' बन्ध की परिभाषा करते हुए आचार्य उमास्वामी ने कहा है "विपाकोऽनुभवः"" अनुभाग बन्ध कर्मों के नाम के अनुसार ही होता है। आर्चाय उमास्वामी ने सूत्र में कहा है ‘स यथानाम'" अर्थात् ज्ञानावरणी कर्म का फल ज्ञान के भाव को अनुभव करना, दर्शनावरणी कर्म का फल दर्शन के अभाव को अनुभव करना और वेदनीय कर्म का फल साता अथवा असाता को अनुभव करता है। इसी प्रकार अन्य सभी कर्मों का फल उसके नाम के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है।
प्रदेशबन्ध - कर्म प्रकृतियों के कारणभूत सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही, अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुओं का आत्म-प्रदेशों के साथ संबंध को प्राप्त होना ही 'प्रदेश बन्ध' कहलाता है।
'प्रदेश बन्ध' कर्मरूप से परिणत पद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या का निर्धारण करता है। मन, वचन और काय के योगों की तीव्रता होने पर अधिक प्रदेशों का बन्ध होता है और मन्दता होने पर अल्प प्रदेशों का बन्ध होता है ।
१. प्राकृत पंचसंगहो, ४/५१४ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २; ३. हार्ट ऑफ जैनिज्म, पृष्ठ १६२। ४. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ २२;
५. वही, पृष्ठ ३७९। ६. तत्त्वार्थसूत्र, ८/२१;
७. वही, ८/२२। ८. तत्त्वार्थसूत्र, ८/२४। ९. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ३७९। १०. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ १३६ ।
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