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श्रमणविद्या- - ३
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उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में कर्म-बन्ध के इन पाँच हेतुओं का ही उल्लेख किया है "मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः ।" पाँचो कारणों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
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१. मिथ्यात्व बन्ध का सबसे प्रथम तथा प्रधान कारण 'मिथ्यादर्शन' है। आत्मा से विपरीत श्रद्धा को 'मिथ्यादर्शन' कहते हैं।' स्वात्मतत्त्व से अपरिचित संसारी आत्मायें शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदि में ममत्व बुद्धि रखती हैं। इन सबकी प्राप्ति को इष्ट तथा इनसे विच्छेद को अनिष्ट मानती हैं और इष्ट के प्रति प्रवृत्त तथा अनिष्ट की ओर से निवृत्त होने का प्रयास करती है। यही रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति बन्ध का मुख्य कारण बन जाती है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति का मूलकारण मिथ्या श्रद्धा है। यह मिथ्या श्रद्धा दो प्रकार से होती है - १. परोपदेशपूर्वक, २. नैसर्गिक ।
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२. अविरति कर्मबन्ध का दूसरा कारण 'अविरति' है। 'विरमणं विरतिः' अर्थात् विरक्ति होना विरति है और विरति का अभाव ही अविरति है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - इन पांचों दोषों से विरक्त न होना ही अविरति कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहा गया है कि आभ्यन्तर में, जिन परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न, परम सुखामृत का अनुभव करते हुए भी, बाह्य विषयों में अहिंसा, असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतों को धारण न करना ही 'अविरति' है
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३. प्रमाद . कर्मबन्ध का तीसरा कारण प्रमाद है । 'प्रमाद' का अर्थ है आत्मविस्मरण । कुशल कार्यों में अनादर अर्थात् कर्त्तव्य अकर्त्तव्य की स्मृति में असावधानी करना ही आत्मविस्मरण है। पूज्यपादजी ने प्रमाद शब्द का अर्थ करते हुए कहा है – 'प्रमादः कुशलेष्वनादरः ' ' क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य आदि धर्मों में अनुत्साह या अनादर भाव के भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का
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है । प्रमाद के मुख्यतया पांच भेद कहे गये हैं— विकथा, कषाय, इन्द्रियराग, निद्रा और प्रणय ।
४. कषाय
कर्मबन्ध का चतुर्थ कारण 'कषाय' है। कषाय को प्रमाद में भी गर्भित किया जा सकता है, क्योंकि प्रमाद के भेदों में कषाय को गिनाया गया है।
१. णियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका, गाथा ९१; ३. बारस अणुर्वेक्खा गाथा ४८; ५. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृष्ठ १९३; ७. राजवार्तिक, पृष्ठ ५६४;
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२. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ३७५ ।
४. दव्वसंगहो टीका, गाथा ३०, पृष्ठ ८८ा ६. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ३७४।
८. भगवती आराधना, पृष्ठ ८१२ ।
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