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जैनाचारदर्शन का व्यावहारिक पक्ष
डॉ. कमलेश कुमार जैन
वरिष्ठ प्राध्यापक - जैनदर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वराणसी
भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।
भारतीय परम्परा में धर्म और दर्शन का विशेष महत्त्व है । जहाँ धर्म श्रद्धाप्रमुख है, वहीं दर्शन चिन्तन - प्रधान है। श्रद्धा जनसामान्य को प्रभावित करती है और चिन्तन बौद्धिक वर्ग को । सुखी जीवन जीने के लिये मानव जाति ने प्रारम्भ से ही विविध प्रकार के नये-नये तौर-तरीके खोजे हैं, जिन्हें हम आज की दुनियाँ में वैज्ञानिक आविष्कारों के नाम से जानते हैं। ये सभी प्रकार के आविष्कार मानव मस्तिष्क के चिन्तन का श्रेष्ठ परिणाम हैं । किन्तु इन आविष्कारों के दुरुपयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि नये-नये आविष्कारों से जहाँ हमें भौतिक सुख-समृद्धि प्राप्त हुई है वही तथाकथित बुद्धिवादियों के कई मानव-विरोधी आविष्कारों से समूचा विश्व विनाश के कगार पर पहुँच गया है। ऐसी विषम परिस्थिति में भारतीय संस्कृति में रचे-पचे ऋषियों/मुनियों के चिन्तन ने हमें एक ऐसी नवीन दिशा दी है, जो हमारी भौतिक सुख-समृद्धि के साथ-साथ हमारी आध्यात्मिक उन्नति का भी मार्ग प्रशस्त करती है। अतः निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि उपर्युक्त पद्धति ही भारतीय-दर्शन का मूलाधार है।
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यद्यपि भारतीय संस्कृति की शीतल छाया में पल्लवित एवं पुष्पित विविध दर्शन हमारे देश में पाये जाते हैं, जो साधनों की विविधता के कारण पृथक्-पृथक् अवश्य प्रतीत होते हैं, किन्तु इन सभी दर्शनों का साध्य एक ही है, जो मानव जाति के कल्याण को स्वीकार करता है। यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाये तो ज्ञात होता है कि भारतीय दर्शन के मूल
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