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श्रमणविद्या-३
साधु और श्रावक दोनों के लिये आवश्यक है। यद्यपि ऊपर पृथक्-पृथक् पाँच मूलनियमों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इनके भी मूल में अहिंसा नियम का पालन करना ही एक मात्र उद्देश्य है। शेष चार नियम उसी अहिंसाधर्म की रक्षा के लिये हैं। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पालन के अभाव में अहिंसा धर्म का पालन अधूरा है। अथवा उसका पूर्णतया पालन कर पाना सम्भव नहीं है।
___जैन-चिन्तकों ने एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी चेतनधारियों को जीव के रूप में स्वीकार किया है। अत: जब तक यह ज्ञात न हो जाये कि कौन-कौन जीव हैं अथवा कहाँ-कहाँ जीव राशि है तब तक उनकी रक्षा कर पाना सम्भव नहीं है। जैन-चिन्तकों ने प्रारम्भ से ही पेड़-पौधों में जीवपना स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि आधुनिक वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र वस् ने भी अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से कुछ वर्षों पूर्व की थी और आज सम्पूर्ण बौद्धिक जगत् इस बात से सहमत है कि पेड़-पौधों में भी जीवपना पाया जाता है। अत: अहिंसा के प्रति समर्पित कोई भी व्यक्ति पेड़-पौधों को भी जानबूझकर नष्ट नहीं करेगा। अन्यथा वह हिंसा के प्रति उत्तरदायी बनने से अपने को बचा नहीं सकेगा।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण की जो समस्या है उसका मूल कारण पेड़पौधों की अन्धाधुन्ध कटाई है और पेड़-पौधों की कमी के कारण वर्षा की भी कमी हुई है, जिससे हमारे खाद्यान्नों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है और हमारे देश में खाद्य-समस्या का संकट पैदा हो गया है।
यद्यपि यह कहा जा सकता है कि जैन-चिन्तनों ने अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन किया है, उतना जीवन में पालन करना सम्भव नहीं है। अत: उनके इस अहिंसा-विवेचन की आलोचना की जाती है। इस सन्दर्भ में मैं जैनचिन्तनों की ओर से कुछ न कहकर मात्र राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन से सम्बन्धित एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा।
एक बार कुछ इसी प्रकार से कुछ बुद्धिजीवियों ने महात्मा गाँधी के समक्ष एक प्रश्न उपस्थित करते हुये कहा था कि महात्मा जी! आप अहिंसा की जितनी सूक्ष्मतम परिभाषा करते हैं, उसका जीवन में पालन करना सम्भव नहीं है। इसका उत्तर देते हुये महात्मा गाँधी ने कहा था कि यदि हम अहिंसा की परिभाषा
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