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बोधिसत्त्व- अवधारणा के उदय में बौद्धेत्तर प्रवृत्तियों का योगदान
किया है । थेरी गाथा के इस स्थल को उद्धृत करते हुए उन्होनें यह दर्शाया है कि भक्ति तत्त्व सर्वप्रथम बौद्धधर्म की ही कल्पना है— सो भत्तिमा नाम च होति पडितो जित्वा च धम्मेसु विसेसि अस्स ।
डॉ हरदयाल के उपर्युक्त कथन को केवल आंशिक रूप से ही स्वीकार किया जा सकता है। यह सत्य है कि बुद्ध भक्ति का समावेश महायान बौद्धधर्म की एक आधारभूत विशेषता है किन्तु महायान की साधना में भक्तितत्त्व का यह समावेश प्रारम्भिक बौद्धधर्म की प्रवृत्तियों का स्वाभाविक विकास मात्र न होकर प्राचीन भक्ति धारा के प्रभाव के फलस्वरूप मानना अधिक तर्क- सगंत प्रतीत होता है। सर्वप्रथम डॉ. हरदयाल का यह कथन अयथार्थ प्रतीत होता है कि भक्ति मूलतः एक बौद्ध परिकल्पना है। पहले तो प्रारम्भिक बौद्धधर्म में भक्ति और श्रद्धा के भावों के अन्तर को देखते हुए यह निश्चित करना होगा कि क्या मूलतः आत्म-विमुक्ति के धर्म प्रारम्भिक बौद्धधर्म में सम भक्ति के लिए कोई स्थान था जिसका आश्रयण कर आत्म- प्रयास का श्रम के बिना ही आराध्य की कृपा या उसके सान्निध्यमात्र से समस्त प्रपंचो से उद्धरण संभव था। साथ ही प्रारम्भिक बौद्धधर्म में जहाँ श्रम या अपना पुरुषार्थं ही मुक्ति प्राप्ति करने का प्रधान साधन है और जहाँ कर्म के नियम का कोई भी अपवाद नहीं है क्या वहां भक्त की आर्तता या दीनता के लिए कोई स्थान है या क्या बुद्ध के समक्ष दीनभाव से उपस्थिति मात्र ही भव-सागर से पार उतार सकती है। कुछ विद्वानों ने आदिम बौद्धधर्म में भक्ति के कुछ तत्त्वों की विद्यमानता की जो बातें कही है, सम्भवतः वे श्रद्धा एवं भक्ति के परस्पर - व्यामिश्रण से जनित प्रतीत होती है। प्रारम्भिक बौद्धधर्म में श्रद्धा के महत्त्व की स्वीकृति स्वयं बुद्ध ने की है किन्तु यह अन्ध श्रद्धा न होकर प्रज्ञान्वया श्रद्धा है। अतः पूर्व बौद्ध साधना में कर्म ही प्रधान था वही मनुष्य का सहायक था, भक्ति अपने विशिष्ट स्वरूप में वहां प्राप्त नहीं होती ।
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इससे विपरीत अनेक प्रमाणों के अधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि बुद्ध से पूर्व भक्ति की साधना विद्यमान थी । स्वयं ऋग्वेद में वरुण के प्रति व्यक्त किए गए ऋषियों के उद्गार भक्ति भावों से ओतप्रोत है। इसे देवता भक्ति कह कर इसकी महत्ता को घटाया नहीं जा सकता। भक्ति का ऐसा सुनिर्धारित तथा स्थिर स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सकता है कि भक्ति तत्त्व का विकास बुद्ध जैसे किसी ऐतिहासिक व्यक्ति के प्रति ही हो सकता है। यदि निर्गुण निराकार वरुण जैसे देवों के प्रति भक्ति के तत्वों को स्वीकार नहीं भी
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