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भोट देश में बौद्धधर्म एवं श्रमण परम्परा का आगमन
तिब्बत के लिये प्रस्थान किया। जैसे ही आचार्य पद्मसंभव ने तिब्बत की सीमा में प्रवेश किया तो भूत-प्रेत, पिशाच - राक्षस आदि इर्ष्या के कारण अशान्त हो उठे। उन में से यरल्हा शाम्पों, गङकर शामेद, जेनछेन थह जैसे शक्तिशाली प्रेत और अन्य जिस किसी ने भी हानी पहुँचाने का प्रयास किया वे शक्तिहीन ( मूर्छित हो गये। उस के पश्चात् उन सभी ने धर्मपालों के रूप में अपने बल और शक्ति का प्रयोग करने की प्रतिज्ञा ली ।
तत्पश्चात् ठीसोङ देच्छेन ने सम्मान पूर्वक आचार्य पद्मसंभव जी का स्वागत किया। धर्मराज की प्रार्थना पर आर्चाय ने ओतेन्तपुरी विहार से प्रेरणा लेकर समये महाविहार का शिलन्यास किया एवं धर्म-पालों और भूत-प्रेत, पिशाच, मनुष्य आदि के द्वारा प्रथम बौद्ध महाविहार की स्थापना सम्पन्न हुई । जो बज्रयान का केन्द्र बिन्दु के रूप में जाना गया। आचार्य पद्मसंभव, महापण्डित शान्तरक्षित और धर्मराज ठीसोङ देच्छेन (खेन ल्होप छोस्सुम ) इन तीनों ने समये महाविहार को पारम्परिक ढंग से प्रतिष्ठा प्रदान की ।
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बौद्धधर्म को पूर्ण रूप से विस्तार एवं विकसित करने के लिये बौद्ध भिक्षु या श्रमणों का होना सब से महत्वपूर्ण था इसलिये सर्वास्तिवाद के बारह भिक्षु तिब्बत में आमन्त्रित किए गये। शान्तरक्षित ने उपाध्याय के रूप में सर्व प्रथम सात बालकों को परीक्षण के लिये प्रब्रज्या प्रदान किया और बाद में तीन सौ से अधिक लोगों को प्रब्रज्या प्रदान कर भिक्षु संघ की स्थापना की । बेरोचाना, कवा पलच्छेक, चोकरो लुयी ज्ञालछेन, शाङ येशेदे इत्यादि को भरत में बौद्ध दर्शन के अध्यन के लिये भेजा गया। अध्यन पूर्ण करने के बाद में विद्वान् स्वदेश लौट कर बौद्ध शास्त्रों के अनुवाद में जुट गये ।
इस के पश्चात् आर्य देश के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय नालन्दा और विक्रमशिला से महा पण्डित आचार्य विमलमित्र, शान्तिगर्भ, धर्मकीर्ति और आचार्य कमलशील जैसे एक सौ आठ विद्वानों ने तिब्बत में काग्यूर - १०८ और नग्यूर - २१८ पुस्तकों का अनुवाद किया। बाद में इसी का ञिङमा, प्राचीन मतके नाम से जाना गया। इस प्रकार बौद्ध धर्म तिब्बत में व्यापक रूप से . फैला और इस तरह गृहस्थ और भिक्षु श्रमणों की परम्परा अब तक बौन को जोड़कर ञिङमा, काग्युद, साक्य और गेलुक सम्प्रदायों के रूप में प्रचलित है। ये सभी अपने-अपने मठ और बौद्ध विहारों में अक्षुण्ण रूप से अभ्यासरत पाये जाते हैं।
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