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द्रव्य कर्म और भावकर्म
जैन - परम्परा में कर्म का केवल क्रियारूप ही मान्य नहीं है, अपितु क्रिया द्वारा आत्मा के संसर्ग में आने वाले एक विशेष जाति के सूक्ष्म पुद्गल को 'द्रव्यकर्म' के रूप में माना है। इस प्रकार जैनदर्शन में कर्म के दो रूप माने गये - भावकर्म और द्रव्यकर्म । जीव की क्रिया भावकर्म और उसका फल द्रव्यकर्म है। कर्म की जीव से सबंधित क्रिया भावात्मक होने के कारण 'भावकर्म' कहलाती है और कर्म की पौद्गलिक अवस्था द्रव्यात्मक होने के कारण 'द्रव्यकर्म' कहलाती है।
१.
श्रमणविद्या- ३
पुद्गल वर्गणाओं के पारस्परिक बन्ध से जो 'स्कन्ध' बनते हैं, वे द्रव्यकर्म हैं। ये द्रव्यकर्म, वर्गणा भेद से पाँच प्रकार के कहे गये हैं । इनसे ही स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का निर्माण होता है। जीव का योग या प्रदेश परिस्पन्दन, द्रव्यकर्म और भावकर्म के मध्य की सन्धि है । "
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इन दोनों में परस्पर कार्य-कारण संबंध है। भावकर्म कारण और द्रव्यकर्म कार्य है, परन्तु द्रव्यकर्म के अभाव में भावकर्म की भी निष्पत्ति नहीं होती, इसी कारण द्रव्यकर्म भी भावकर्म का कारण है। भावकर्म और द्रव्यकर्म का कार्यकारणभाव अनादि से ही है। यह संबंध कहाँ से प्रारम्भ हुआ, यह कहना कठिन है, क्योंकि जैनमतानुसार जीव और पुद्गल का संबंध अनादिकाल से है। यह एक दृढ़ यथार्थ है, जिसे अन्य सभी दर्शनों ने भी स्वीकार किया है। यद्यपि सन्तति के दृष्टिकोण से भावकर्म और द्रव्यकर्म का कार्य कारण भाव अनादि है, परन्तु व्यक्तिशः विचार करने पर, किसी एक द्रव्यकर्म का कारण, एक भावकर्म ही होता है। राग-द्वेष-रूप परिणामों के कारण ही जीव, द्रव्यकर्म के बन्धन में बद्ध होता है और उसी के फलस्वरूप संसार में परिभ्रमण करता है। यद्यपि जीव और कर्म का संबंध अनादि है और कार्य-कारणरूप से यह चक्र चलता रहता है, परन्तु विशेष अभ्यास और आत्मिक शक्ति से इस चक्र को रोका जा सकता है। जैसे खान से निकले सोने में, सोने और मिट्टी का संबंध अनादिकाल से है, परन्तु आग में तपाने से उस अनादि संबंध का विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार जब जीव निरन्तर अभ्यास द्वारा भावकर्मों पर नियंत्रण कर लेता है, तब द्रव्यकर्म तथा भावकर्मों का यह अनादि प्रवाह रुक जाता है । इसीलिए द्रव्यकर्म तथा भावकर्म का संबंध 'अनादि' होते हुए भी 'सान्त' है।
१. आप्तपरीक्षा, ११३ - ११४; ३. आत्ममीमांसा, पृष्ठ९६;
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२. कर्मसिद्धान्त, पृष्ठ ६७१
४. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृष्ठ २२७।
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