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जैनदर्शन में कर्म-सिद्धान्त
डॉ. सुदीप जैन
उपाचार्य, प्राकृत विभाग श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली
देशयामि समीचीनं धर्म कर्म-निवर्हणम् । संसारदुखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार) इस मगंल पद्य में आचार्य समन्तभद्र ने धर्म को कर्म-निवारक बताया है तथा उसके फलस्वरूप जीवों को सांसारिक दुःख से मुक्ति एवं उत्तम सुखकी प्राप्ति होना प्रतिपादित किया है।
'कर्म' दर्शनशास्त्र का प्रधान विषय
कर्म सिद्धात दर्शनशास्त्र का प्रधान तथा महत्त्वपूर्ण विषय है। सभी दर्शनों में इस विषय पर विशेष चिंतन किया गया है। जैसे, सुख-दुःख का अन्वेषण करते हुए न्याय-वैशेषिक में कहा गया है- “संसार में कोई सुखी है कोई दुःखी है, किसी को खेती आदि करने से विशेष लाभ होता है, इसके विपरीत किसी को हानि होती है, किसी को अचानक संपत्ति मिल जाती है और किसी पर सहसा बिजली गिर जाती है,- ये सब किसी दृष्ट-कारण के निमित्त से नहीं है, अत: इनका कोई अदृष्ट-कारण मानना चाहिए।
महात्मा बुद्ध ने भी कहा है- हे मानव! सभी जीव अपने कर्मों से ही फल का भोग करते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं। अपना कर्म ही अपना बंधु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है। कर्म से ही प्राणी ऊंचे और नीचे होते हैं।
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृष्ठ २। २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृष्ठ २।
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