________________
१०६
श्रमणविद्या-३
दृष्टिपात करने वाले प्रभास्वर सत्त्वों की परिकल्पना तथा इस अवधारण का अभ्युदय कि बोधिसत्त्व बुद्धों के Emanic pation हैं।
यहाँ पर यह भी स्मरणीय है कि सूर्योपासना से प्रारम्भिक बौद्ध धर्म सर्वथा अपरिचित नहीं था। दीर्घनिकाय में सूर्योपासना का उल्लेख प्राप्त होता है तथा आदिच्चूपट्ठान जातक में इसका उपहास किया गया है। स्वयं भगवान बुद्ध को अनेक स्थलों पर आदित्य बन्धु भी कहा गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान भारतीय सूर्य पूजा तथा पारसीक सूर्योपासना पर आधारित एक नवीन सूर्य उपासना सम्प्रदाय का अस्तित्व था तथा बौद्ध धर्म विशेषत: परवर्ती बौद्ध शाखाओं के कुछ पक्षों पर इसका प्रभाव पड़ा। स्टाइनपेलिओ आदि विद्वानों ने चीनी तुर्किस्तान से प्रचुर मात्रा में जो प्राचीन पाण्डुलिपियां प्राप्त की थी उनके विश्लेषण से यह तथ्य सामने आया है कि यह पारसीक प्रभाव पूर्वी ईरान की उतेन भाषा के माध्यम से मध्य एशिया होते हुए चीन तक पहुँचा। सर्व प्रथम इस का मध्य एशिया की कुषसण या यूची जाति से सम्पर्क हुआ। यही जाति बाद में अपने इन प्रभावों के साथ भारत के पश्चिमोत्तर में आई। इनकी सभ्यता एवं संस्कृति एक बड़े अंश तक पारस से गृहीत थी, अंशत: यूनान से भी। इसी जाति का महान सम्राट कनिष्क बौद्ध धर्म ग्रन्थों में सम्राट अशोक के बाद दूसरा महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता है। इसी के समय में पेशावर में बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति हुई जिसमें महाविभाषा शास्त्र के संगायन के साथ-साथ बौद्ध धर्म के स्वरूप में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिनमें बुद्ध भक्ति का सुस्पष्ट अभ्युदय तथा बोधिसत्त्व अवधारणा का विकास भी एक है।
ईसवीय शतक के प्रारम्भ के कुछ समय पूर्व तथा पश्चात् पश्चिमोत्तर भारत के गान्धार एवं आधुनिक बलख के क्षेत्रों में भारतीय पारसीक तथा यूनानी विचारों संस्कृतियों का विचित्र सम्पर्क हुआ। तक्षशिला गान्धार का तत्कालीन प्रमुख विद्या केन्द्र था। यहाँ इस प्रकार के सम्पर्कों का होना भी सर्वथा स्वाभाविक हुआ था। यद्यपि इसका सुस्पष्ट साक्ष्य सम्पत्ति प्राप्त नहीं है फिर भी इन सम्पर्कों के फलस्वरूप बौद्धों, भागवतों आदि भारतीय धार्मिक सम्प्रदायों
१. दीर्घनिकाय १.२. पक्ति २२वीं २. ड. जे. टामस बुद्ध प. २१७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org