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कविशिक्षा का मूल्यांकन
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काव्यकल्पलता की टीका के रूप में हुई पर इसमें स्वतंत्र और मौलिक चिन्तन बहुश: दृष्ट है। चौदहवीं शती में देवेश्वर की रचना काव्यकल्पलता एवम् सोलहवीं शती में महादेव की कविकल्पलताटीका और केशवमिश्र का अलंकारशेखर इसी श्रेणी की रचनायें हैं। इनके अतिरिक्त हलायुध का कविरहस्यम्, देवेन्द्र की कविकल्पलता, गङ्गादास की काव्यशिक्षा, सूर्यशर्मा की कविकल्पलता टीका, केशव की कविजीवनम्, कृष्णकवि की चित्रबन्धः आदि रचनायें स्वतंत्र रूप से इस विषय का विवेचन करती हैं और एतत्परक साहित्य को समृद्ध करती हैं। कविकल्पलताविवेक, काव्यविशेष, कविशिक्षावृत्ति, कविता-करणोपायः आदि कुछ ऐसे ग्रंथों का उल्लेख और विवरण भी प्राप्त है जिनके रचनाकार तो अज्ञात हैं पर इनका विषय शुद्ध रूप से कविशिक्षा ही है। इस तरह कविशिक्षा का बीज भरत के नाट्य शास्त्र में ही काव्यशास्त्र:-विषय में अन्तर्भूत रूप से प्राप्त होता है। काव्यशास्त्र के अङ्गरूप में ही शनै:-शनैः संवर्द्धित होते हुए ग्यारहवीं शती तक यह महत्त्वपूर्ण एवम् पल्लवित विषय के रूप में सुप्रतिष्ठ होता है तथा तेरहवीं शती के पूर्वार्द्ध से ही काव्यशास्त्रीय चिन्तन की स्वतंत्र प्रशाखा के रूप में मान्य हो जाता है।
वैसे तो आरम्भ में कविशिक्षा का विषय काव्य-रचनोपयोगी व्यावहारिक निर्देशों तक सीमित था किन्तु सम्वर्द्धना और स्वतन्त्र सत्ता के साथ ही इसके विषयवस्तु में विस्तार होता गया। फिर भी स्थूल रूप से इसके विषयवस्तु को चार भागों में बाँटा जा सकता है(क) छन्द:सिद्धि
काव्य अधिकांशत: छन्दोबद्ध है। बिना अर्थ-प्रत्यय के भी रसोद्बोधन की इनमें स्वरूपयोग्यता है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में इसका संकेत दिया है कि कौन से छन्द किन रसों या भावों के अनुकूल हैं। क्षेमेन्द्र ने भी इसका विवरण दिया है कि किन कवियों की किस छन्दरचना में विशेष क्षमता है। पर कविशिक्षा ने इसे मुख्य प्रतिपाद्य के रूप में अपनाया तथा शब्दार्थ से हटकर वर्ण मात्र का सहारा लेते हए ध्वनियों के सहारे इसकी सिद्धि की सलाह दी। इसीलिये प्राय: छन्द:सिद्धि को प्रत्येक कविशिक्षा रचना ने अपने प्रथम तीन अध्यायों के अन्तर्गत ही स्थान दिया है। यह विचारणीय है कि विप्रलम्भ शृंगार रस के जितना अनुकूल शार्दूलविक्रीडित, सम्भोग-शृंगार के जितना अनुकूल शिखरिणी, कोमल प्राकृतिक चित्रण के जितना अनुकूल मालिनी आदि छंद है उतना कोई अन्य नहीं।
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