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श्रमणविद्या-३
की स्वीकृति विना उसे खा नहीं सकता था, इस प्रकार के अनेक नियम थे, जैसे भिक्षुओं को कार्य परिषदों के नियम से ही चलना, तविपरीत आचरण करने पर उन्हें विहार से निष्कासित कर दिया जाता था, यदि कोई भिक्षुणी किसी भिक्षु से मिलना चाहती है तो वह परिषदों की आज्ञा पर ही मिल सकती थी, वह किसी भिक्षु के कमरे में नहीं जा सकती थी, किसी कारणवश उसे बाहर जाना होता या किसी गृहस्वामी के यहाँ जाना होता था तो चार भिक्षुणी मिलकर ही जा सकती थी।
___ बड़े आचार्य और भिक्षुओं के रहने के लिए कार्य परिषद ही कमरे की व्यस्था करती थी, विहार के परिचारकों को उन भिक्षुओं और आचार्यों के कार्य के निमित्त आदेश कार्य परिषद् ही देती थी, जो आचार्य प्रतिदिन धर्म उपदेश करते थे उनके विहारों के दैनिक कार्यों को करने में प्रतिबन्ध नहीं होता था, यदि कोई गृहस्वामी भिक्षु बनने की इच्छा प्रकट करता था तो उसे विहार की कार्य परिषदों से आदेश लेना होता था, कार्य परिषद् उस व्यक्ति के विषय में पूर्ण जानकारी के उपरान्त ही उसको पहले उपासक, तदुपरान्त भिक्षु बनाती थी, उसके पश्चात् विहार के रजिष्टर पंजिका में उसका पजीकरण होता था।
अगर कोई भिक्षु विहार का नियम भङ्ग करता था तो उसे विहार से निष्काषित करने का अधिकार कार्य परिषदों को होता था,। प्रत्येक मास के चार दिन शाम को प्रत्येक विहार से भिक्षु इन विहार में एकत्रित होकर विहार के नियम और विनय के विषय में आलोचना करते थे और उन नियमों पर चलने के लिए सभी को प्रेरित करते थे। विदेशी भिक्षु के रहने और भोजन आदि का प्रबन्ध इन परिषदों द्वारा ही किया जाता था। पांच दिन तक विदेशी भिक्षु को उत्तम भोजन दिया जाता था, उसके बाद उसको विहार के अन्य भिक्षुओं के समान ही भोजन दिया जाता था।
भगवान् बुद्ध के त्रिरत्न की उपासना ही प्रत्येक भिक्षु की मुख्य पूजा थी, विहार में बुद्धमूर्ति की पूजा प्रत्येक भिक्षु का प्रतिदिन का नियम था। प्रात:काल विहार की घण्टाध्वनि के साथ ही सभी भिक्षुओं के समक्ष विहार की बुद्धमूर्ति को सुगन्धित पानी से धोकर पोछकर उसकी पुष्प और अगरबत्ती द्वारा पूजा की जाती थी। यह कार्य परिषदों के आदेश से ही करना पड़ता था, इसके पश्चात् भिक्षु अपने अपने कमरे में जाकर उसी प्रकार मूर्ति की पूजा करते थे।
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