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बङ्गाल के प्राचीन बौद्धविहारों में श्रमणों के नियम एवं शिक्षा-व्यवस्था १३७
उस समय इन सब विहारों को सुरक्षित रखने के लिए और भिक्षुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राजाओं से दान मिलता था, जैसे 'मृगशिखावन' विहार के खर्च हेतु श्रीगुप्त ने वीस ग्राम दान में दिये थे, कृषि योग्य जमीन की आय से ही विहारों का खर्च चलता था, इससे ज्ञात होता है कि उस समय इन विहारो के आर्थिक व्यय का सम्पूर्ण भार राजाओं और धार्मिक जनता द्वारा दिये दान से ही चलता था।
चीनी यात्री इत्सिङ् ने अपनी यात्रा वृत्तान्त में भारा विहार के विषय में विस्तार से उल्लेख किया है, उस समय भिक्षुओं की जीवन प्रणाली और शिक्षा आदि के विषय में ज्ञात होता है कि भिक्षुओं के लिए कृषि कार्य निषिद्ध
था, इसलिए विहार के सन्निकट गाँव के कृषकों को खेती दी जाती थी। किसान उस खेती से उत्पन्न धान्य को तीन भागों में विभक्त कर विहार को देते थे। उस समय सभी विहारों की कृषि योग्य जमीन और बगीचे आदि होते थे; यह सब उस समय के राजाओं के द्वारा दान में दिया जाता था क्योंकि विहार में निवास कर रहे भिक्षुओं का खाना और शिक्षा आदि उसी पर निर्भर था।
भाराविहार में यह सब कार्य देखने के लिए जिस भिक्षु को नियुक्त किया जाता था उसको कर्मदान से जाना जाता था। उनका कार्य इस प्रकार होता था, विहार में घण्टी बजाना, चौबीस घण्टे में आठ बार घण्टा ध्वनि होता था, प्रात: काल चार बजे घण्टा ध्वनि के द्वारा भिक्षुओं को शयन से जगाकर बुद्धचिन्तन में ध्यान लगाना, द्वितीयवार घण्टी बजाकर नहाने के लिए और पूजा के लिए सभी भिक्षुओं को सूचित करना, दिन को बारह बजे घण्टा ध्वनि के द्वारा भिक्षुओं को खाने के लिए एकत्रित करना, इस प्रकार भिक्षुओं को विहारों में नियम पालन के लिए घण्टा ध्वनि होती थी, इससे यह प्रतीत होता है कि उस समय विहारों तथा उनसे सम्बन्धित शिक्षालयों में कितना अच्छा अनुशासन था।
‘भाराविहार' किसी बाह्य व्यक्ति के अधीन नहीं था, उस विहार के मुख्य भिक्षु के द्वारा निर्वाचित कार्य परिषदों के द्वारा सभी प्रकार के कार्य और विहार के नियम आदि का निर्धारण होता था, यह कार्य परिषद विहार के स्थविर कर्मदान, वयोवृद्ध भिक्षुओं, भिक्षुणी, श्रमण, उपासक एवं उपासिकाओं को लेकर निर्वाचित होता था। विनय नियम का पालन यहाँ इतनी दृढ़ता से होता था कि यदि कोई व्यक्ति किसी भिक्षु को खाने के लिए कुछ देता था तो वह परिषद्
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