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शोभाकर मित्र की काव्यदृष्टि
डा. काली प्रसाद दुबे
उपाचार्य, सं. विद्या विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी
शोभाकरमित्र द्वारा विरचित अलंकाररत्नाकर उनकी एकमात्र काव्यशास्त्रीय कृति है । साहित्यशास्त्र का यह एक प्रकरण ग्रन्थ हैं, जिसमें इसके नाम के अनुरूप ही केवल अलंकारों का ही प्रतिपादन किया गया हैं । सूत्र- वृत्ति उदाहरण और परिकरश्लोकात्मक शैली में लिखे गये इस अलंकारग्रंथ के ११२ सूत्रों में कुल १०९ अलंकारों का निरूपण किया गया है, जिनमें से ६९ अलंकार पूर्ववर्ती आचार्यों से ग्रहण किये गये हैं, शेष ४० अलंकार शोभाकर की स्वयं की कल्पना से प्रसूत हैं । पूर्ववर्ती आचार्यों में मुख्यतः शोभाकर ने भरत, भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, भोज, मम्मट और रुय्यक को अपना उपजीव्य बनाया हैं। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि उन्होनें अलंकारो के लक्षणों एवं उनके उदाहरणों का ज्यों का त्यों उनके मूल स्रोत के अनुरूप ही अनुकरण कर लिया हैं, अपितु जैसा कि उन-उन स्थलों से स्पष्ट होगा, उन्होनें पुनरुक्तवदाभास, व्यतिरेक, उत्प्रेक्षा, रूपक, समासोक्ति, भ्रान्तिमान्, अतिशयोक्ति, समाधि, सूक्ष्म, उदात्त, संकर, प्रभृतिअलंकारों के मूल लक्षणों में दोषाविष्कृति करते हुए इन के नवीन लक्षणों की सृष्टि की हैं, और तदनुरूप उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। नवीन अलंकारों की उद्भावना में तो शोभाकरमित्र ने अपूर्व कल्पनाशक्ति का परिचय दिया है, किन्तु ऐसा करने में शोभाकरमित्र अकेले नहीं हैं। आचार्य भरत से लेकर अप्पयदीक्षित तक जितने अलंकार शास्त्री हुए हैं, प्रायः सभी ने नवीन अलंकारों की कल्पना की हैं। अन्यथा भरत के चार अलंकार कुवलयानन्द तक १२५ कैसे हो जाते ? अलंकारो की यह उत्तरोत्तर बृद्धि कोई आश्चर्यजनक बात भी नही है, क्योंकि उक्तिवैचित्र्य ही अलंकाररूप में परिणत होती हैं और उक्तिवैचित्र्य की कोई इयत्ता नहीं है, यह अनन्त हैं। अतः जिस आचार्य को जिसने प्रकार के उक्ति वैचित्र्य प्रतिभासित हुए उतने प्रकार
१. द्रष्टव्य- अप्रकाशित शोधप्रबध 'शोभाकरमित्रकृत अलंकाररत्नाकर एक अध्ययन' डॉ. कालीप्रसाद दुबे, पृष्ठ २१-३० ।
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