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शोभाकार मित्र की काव्यदृष्टि
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'सापेक्षत्वे तु कुन्ताः प्रविशन्तीतिवदर्थप्रतीतिर्लक्षणया न तु व्यंजनेन उपादानलक्षणाया अस्तमयप्रसंगात्।' इससे स्पष्ट होता है कि लक्षणा के दो अवान्तर प्रकार उपादानलक्षणा एवं लक्षणलक्षणा भी उन्हें मान्य हैं। इस सम्पूर्ण मान्यता के लिये शोभाकरमित्र ध्वनिकार के ऋणी हैं।
काव्य में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ के अतिरिक्त एक व्यंग्यार्थ भी माना गया है और इसका बोध कराने वाला शब्द व्यंजक तथा व्यापार व्यंजना है। मम्मट के अनुसार लक्षणा में प्रयोजन की प्रतीति कराने के लिए व्यंजना व्यापार के अतिरिक्त
और कोई व्यापार नहीं हैं। शोभाकर भी इसी प्रकार का मन्तव्य प्रकट करते हैं‘फलस्य या व्यंजनतो गतिस्सा ज्ञेया ध्वनित्वव्यपदेशहेत:।' ध्वनि की हेतुभूत इस व्यंजना का स्वरूप निर्धारण करते हुए मम्मट का कथन है कि अनेकार्थक शब्द के किसी एक अर्थ में नियन्त्रित हो जाने पर (उससे अन्य) अवाच्य अर्थ की प्रतीति कराने वाला शब्द व्यापार व्यंजना है। आनन्दवर्धन ने मुख्य और गुणवृत्ति से अतिरिक्त शब्द व्यापार को व्यंजना कहा हैं। शोभाकर ने व्यंजना का प्रादुर्भाव वहाँ माना है, जहाँ वाच्यार्थ में बाधा न रहते हुए भी, शब्द से अथवा अर्थ से अन्य अर्थ की प्रतीति होती हो। शोभाकर की निम्न पंक्तियों का आशय यही हैं
‘वाच्यस्य अबाधितत्वेन पर्यवसितत्वे व्यंजनस्य सम्भवात्' ।
उक्त तीनो प्रकार से बोधित होने वाले अर्थ वाच्यार्थ लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ का विवेचन वे इन पंक्तियों में करते हैं
'यत्र तु पर्यवसिते वाक्यार्थे योऽर्थोऽलंकारो वा प्रतीयते स प्रतीयमानो व्यंग्य इत्युच्यते। अपर्यवसिते मुख्यबाधे लक्ष्य: तदभावे त्वार्थ इति सर्वत्र निर्णयः।' (अ.र.पृष्ठ ५०) गुणालंकारनिरूपण
शोभाकर के पूर्ववर्ती आचार्य ध्वनिकार काव्यजीवितभूततत्त्व रस की स्थापना कर चुके थे और गुण को उन्होनें रसधर्म के रूप में निरूपित किया था और अलंकार को शब्दार्थ का धर्म माना था। ध्वनिकार की पंक्ति है
- १. अ.र.पृष्ठ८१. २. यस्य प्रतीतिमाधातुं लक्षणा समुपास्यते ।
फले शब्दैकगम्येऽत्र व्यंजनानापरा क्रिया ।। (का.प्र.सूक्त २३) ३. अ.र.पृष्ठ.६६। ४. अ.र.पृष्ठ५०। ५. विशेष द्रष्टव्य- पं.रेवाप्रसाद द्विवेदी-आनन्दवर्धन पृ.२५५-८४.
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