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काव्यशास्त्र की प्रशाखा के रूप में कवि-शिक्षा का मूल्याङ्कन डॉ. राजीव रंजन सिंह
अध्यक्ष
संस्कृतविद्या-विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
भारत में काव्यशास्त्र या आलोचनाशास्त्र का प्रादुर्भाव अत्यन्त प्राचीन काल में हो चुका था। आरम्भिक काल में वेद की तरह यह अविभक्त और समग्र था। संस्कृत-आलोचनाशास्त्र के आदिग्रंथ भरत के नाट्यशास्त्र में साहित्य से साक्षात् सम्बद्ध सभी तत्त्वों से अतिरिक्त तत्त्वों का भी उपपादन किया गया है। वहाँ काव्यशास्त्र या अलंकारशास्त्र और नाट्यशास्त्र के रूप में अथवा दृश्यकाव्य, संगीत और कविता के रूप में कोई भेद नहीं किया गया है। किन्तु परवर्ती काल में दृश्यकाव्य और श्रव्यकाव्य के भेद से नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र के रूप में आलोचनाशास्त्र दो स्वतंत्र विभागों में विभक्त हो गया। यद्यपि तब भी इन दोनों शाखाओं में रसादि विषयों पर समान रूप से विचार किया गया किन्तु उक्त विचार के उद्देश्य में पर्याप्त अन्तर आ चुका था। नाट्यशास्त्र प्रयोग-विज्ञान के रूप में विकसित हो रहा था जबकि काव्यशास्त्र का मुख्य प्रतिपादय काव्य की परिभाषा, उसके मूल तत्त्व, उसका वर्गीकरण आदि हो चुका था। इसमें भी प्रमुखता काव्य के आत्मत्तत्त्व के संबंध में विभिन्न विचारधाराओं, यथा रससंप्रदाय, अलंकारसंप्रदाय, ध्वनिसंप्रदाय आदि, के विवेचन को प्राप्त था।
काव्य के हेत के संबंध में काव्यशास्त्रियों के मध्य मतभेद है। किन्हीं के अनुसार कवित्व जन्मजात होता है और इसलिये काव्य का मूल हेतु हैप्रतिभा जो जन्मजात संस्कार विशेष है। अन्य विद्वानों के अनुसार कवित्वशक्ति जैसे जन्मजात होती है वैसे अर्जित भी की जा सकती है। इनके मत में प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास समुदित रूप से काव्य के मूल हेतु है। इनमें से 'प्रतिभा या शक्ति' नैसर्गिक है, 'निपुणता' लोक और शास्त्र में प्रचलित
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