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श्रमणविद्या-३
१५. पात्रदान १६. वैयाकृति १७. समाधि-दान १८. अपूर्व ज्ञानाभ्यास १९. श्रुत भक्ति २०. प्रवचन भावना
यद्यपि इन बीस निमित्तों एवं दश पारमिताओं के मध्य भावनात्मक साम्य खोजा जा सकता है परन्तु साथ ही उनमें मौलिक अन्तर यह है कि बुद्धत्व प्राप्ति के लिए ही पारमिताओं के पालन करते हैं। जैन परम्परा के अनुसार वीतरागता बौद्ध परिभाषा में अर्हत पद के लिए ही विहित है। तीर्थकरत्व एक गरिमापूर्ण पद है। वह काम्य नहीं हुआ करता। वह तो सहज सुकृत संचय से प्राप्त हो जाता है। विहित तप को किसी नश्वर काम के लिए अर्पित कर देना जैन-परिभाषा में 'निदान' कहलाता है।
चउव्विहा खलु तब समाद्धि मवई ततद्धानों इहलोमट्ठयाए तब महिट्ठज्जा न परलोगट्ठायाए तबमहिद्वेज्जा, नो कित्तिवण्णसर्द्ध सिलोगट्ठयाए तब महिद्वेज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए विमीहढेज्जा ।
__यह विरोधकता का सूचक है। भौतिक ध्येय के लिए तप करना भी अशास्त्रीय है। बौद्धों ने बुद्धत्व इसलिए काम्य माना है कि सर्वज्ञत्व के साथसाथ व्यक्ति अपनी भव वुभुक्षा को गौण करता है और विश्व मुक्ति के लिए इच्छुक होता है भले ही संवृत्ति के धरातलपर ही। तात्पर्य यह है कि जैनों ने तीर्थंकरत्व को उपाधि-विशेष से जोड़ा है और बौद्धों ने बुद्धत्त्व को परोपकारिता से। यही अपेक्षा-भेद दोनों परम्पराओं के मौलिक अन्तर का कारण बना है। यही कारण है कि जिस प्रकार प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में बुद्धों की संख्या सीमित है और बुद्धत्व अतिदुर्लभ माना गया है उसी प्रकार जैन परम्परा में भी चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन है जो कि कालक्रम से आते जाते रहते हैं। महायान की भाँति बुद्धों की असंख्यता, असंख्य बुद्धलोकों के अस्तित्व तथा उनकी पौराणिक प्रकृति जैसे तथ्यों का संदर्शन यहां नहीं है। बोधिसत्त्वों की परानुग्रहपरक साधना का अस्तित्व ही यहाँ नही हैं।
१. दश्वकालिक अ. ९३०४।
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