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बोधिसत्त्व-अवधारणा के उदय में बौद्धेत्तर प्रवृत्तियों का योगदान १०३
माना जाता है। सर्व प्रथम प्राचीन बौद्ध धर्म में प्राप्त बोधिसत्त्व के सन्दर्भ में जैन धर्म का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन एवं बौद्ध इन दोनों ही परम्पराओं में पूर्व भव की चर्चा प्रायः समान पद्धति से प्राप्त होती है। महावीर एवं बुद्ध की भव चर्चा में तो एक विचित्र साम्य के दर्शन भी होते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अनेक भव पूर्व मरीचि तापस को लक्ष्य करते हुए जिस प्रकार यह कहा था कि यह अंतिम तीर्थंकर महावीर होगा, इसी प्रकार अनेक कल्पों पूर्व दीपंकर बुद्ध ने सुमेध तापस के विषय में यह वेय्याकरण किया था कि वह एक दिन बुद्ध होगा। महावीर से सम्बधित यह घटना उनके पच्चीस भव पूर्व की है जबकि बुद्ध की घटना पाचँ सौ इक्यावन भव पूर्व की है।
दोनों ही परम्पराओं के पूर्व भव की चर्चा करने वाले प्रकरणों में भव भ्रमण का प्रकार आयु की दीर्घता आदि अनेक विषय हैं। तीर्थंकरत्व प्राप्ति के लिए जो बीस निमित्त तथा बुद्धत्व प्राप्ति के लिए अपेक्षित जो दश पारमिताएं हैं उनमें कुछ साम्य है, जैसा कि निम्नलिखित सूची से सपष्ट होता हैबीस निमित्त
दश परिमताएं १. अरिहन्त की अराधना
१. दान २. सिद्ध की अराधना
२. शील ३. प्रवचन की अराधना
३. नैष्क्रम्य ४. गुरू का विनय
४. प्रज्ञा ५. स्थविर का विनय
५. वीर्य ६. बहुश्रुतका का विनय
६. क्षान्ति ७. तपस्वी का विनय
७. सत्य ८. अभीक्षण ज्ञानोपयोग
८. अधिष्ठान ९. निर्मल सम्यग्दर्शन
९. मैत्री १०. विनय
१०. उपेक्षा ११. षडमावश्यक का विधिवत समाचरण १२. ब्रह्मचर्य का निरतिचार पालन १३. ध्यान १४. तपश्चर्या
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