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श्रमणविद्या-३
फल बौद्ध धर्म के इस विशिष्ट स्वरूप के उपस्थापन में कहाँ तक हो सकता है, यह भी मननीय प्रश्न है,
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त अनेकों शताब्दियों के विचार विमर्श के फलस्वरूप जो महायान बौद्धधर्म तथा उसका सर्वप्रमुख बोधिसत्त्व सिद्धान्त सामने आया, उसका स्वरूप निर्माण जिन बौद्धेतर प्रवृत्तियों से आधुनिक मनीषियों ने माना है उन्हें सर्वप्रथम निम्नलिखित दो शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है
१. बौद्धेतर प्राचीन भारतीय धार्मिक चिन्तन एवं साधना। २. भारत से बाहर के धर्म एवं संस्कृतियाँ।
इन दोनों में से पहले का विश्लेषण एवं परीक्षण करते हुए यह उल्लेखनीय है कि बौद्धधर्म अपने अनेक सिद्धान्तों एवं मान्यताओं के लिए बुद्ध से पूर्ववर्तिनी दार्शनिक एवं धार्मिक चिन्तनधाराओं विशेषतया औपनैषदिक तथा कतिपय अवैदिक चिन्तनों से पूर्णतया निरपेक्ष नहीं है। इन्हें पुनः स्थूलरूप से निम्नवर्गों में विभक्त करते हुए इनमें से प्रत्येक पर संक्षेप में दृष्टिपात करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है
१. भागवत एवं पाशुमत जैसी भक्ति धाराएं तथा २. जैन-परम्परा।
बोधिसत्त्वीय आदर्श के उपस्थापन में जो एक तत्त्व अत्यंत विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण है वह है भक्ति-तत्त्व। डॉ हरदयाल के शब्दों में बोधिसत्त्व सिद्धान्त प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में बुद्ध भक्ति के विकास तथा बुद्धत्व के अमूर्तिकरण इन दो चिन्तन धाराओं का अनिवार्य प्रतिफल है । पुन: इन्हीं के कथनानुसार पहले यह भक्ति गौतम बुद्ध के प्रति थी परन्तु शीघ्र ही उनका अमूर्तिकरण अतिमानवीयकरण या विश्वात्मीकरण हो जाने के उपरान्त श्रद्धालु उपासकों के लिए वे अनुपयुक्त एवं अनाकर्षक रहा। अत: बोधिसत्त्वों के मूर्तिकरण एवं उनकी धारणाओं में दृढ़ मूल भावना को व्यक्त करने के अवसर प्राप्त हुए। साथ ही उनका यह भी कहना है कि भारतीय धर्मों के इतिहास में भक्ति का उदय मौलिक रूप से बौद्ध साहित्य में ही हुआ हैं, बौद्धों ने इसे कहीं अन्यत्र से गृहीत नहीं
१. महावग्ग. पृ. ३२।
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