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श्रमणविद्या-३
समस्त धर्मों का निरोध हो जाता है। वस्तुत: जन्म-मरण की परम्परा अविद्या क्लेश और कर्म पर आश्रित है, विद्या से क्लेश क्षीण हो जाता है, इस प्रकार संसार चक्र का निरोध हो जाता है, सामान्यत: इसे ही निर्वाण कहते हैं। .
इस प्रकार संक्षेपत: स्थविरवाद मत के आधार पर 'निर्वाण' के विषय में यह कहा जा सकता है, कि सर्वप्रथम शील में प्रतिष्ठित होकर शीलवान साधक समाधि की भावना करते हुए, लोकोत्तर समाधि को प्राप्त कर, तदनन्तर उसका प्रज्ञा अर्थात् विपश्यना भावना के साथ योग करते हुए राग, द्वेष; मोह इत्यादि समस्त क्लेशों को क्षय करते हुए, लोकोत्तर प्रज्ञा के उत्पन्न होने पर तृष्णा रहित होकर 'निरुपधिशेष निर्वाण' प्राप्त करता है। समस्त तृष्णाओं का क्षय ही भगवान् बुद्ध का वास्तविक निर्वाण है।
१. बौद्धधर्म के विकास का इतिहास (गो.च. पाण्डेय) पृ. ९७।
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