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श्रमणविद्या-३
सम्पूर्ण दुःख स्कन्ध का निरोध हो जाता है, यही निर्वाण है। मज्झिमनिकाय में कहा गया है कि-'अनासवो दुक्खस्सन्तकरो होति' अर्थात् चित्त विकार रहित साधक ही दुःख का अन्त कर पाता है।
'अंगुत्तर निकाय' में भी कहा गया है कि “भिक्खु सब्बसो नेवसञ्जानासआयतनं सञ्जावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, पञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति। इमिना पि खो एतं आवसो परियायेन वेदितब्बं यथा सुखं निब्बाणं'। अर्थात् नेवसंज्ञानासंज्ञायतन का समतिक्रमण करके संज्ञावेदयित निरोध को प्राप्त कर विहरता है, तथा प्रज्ञा से उसे देखकर आश्रवों से परिक्षीण होता है, इस प्रकार से आवस क्रमश: जानना चाहिये, कि निर्वाण सुख है। इसी को सानुदृष्टिक एवं दृष्टधर्मनिर्वाण भी कहा गया है ।
एक प्रसंग में आयुष्मान सारिपुत्र ‘आनन्द' से कहते हैं कि जो प्राणी अविद्या को कमी करने वाली प्रज्ञा को यथार्थ रुप से जानते हैं, विद्या को स्थिर करने वाली प्रज्ञा को, विशेष ज्ञान की ओर ले जाने वाली प्रज्ञा को, तथा विषय को बींधने वाली प्रज्ञा को यथार्थ रुप से जानते हैं ऐसे प्राणी इसी शरीर के रहते परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार निर्वाण प्राप्त व्यक्ति को विमुक्त है, निवृत्त है, विगततृष्ण है, ऐसा कहा जाता है।
यहाँ निर्वाण को 'विसुद्धि' कहा गया है, “विसुद्धी ति सब्बमलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्धं निब्बानं” अर्थात् सभी प्रकार के मलों (चित्तविकारों) से रहित निर्मल अत्यन्त परिशुद्ध निर्वाण के अर्थ में जानना चाहिए। 'विशुद्धिमार्ग' में निर्वाण को 'अमृत' तथा 'असंस्कृत' कहा गया है, निर्वाण परमार्थत: स्वभावभूत एक धर्म है, वह प्रज्ञप्ति मात्र भी नहीं है। निर्वाण मार्ग द्वारा प्राप्तव्य होने से असाधारण है, मार्ग द्वारा प्राप्तव्य मात्र है, उत्पादनीय नहीं है, 'अप्रभव' है उत्पाद न होने से अजरामरण है। उत्पाद स्थिति भङ्ग न होने से 'नित्य' है। रूप स्वभाव का अभाव होने से अरूप है, तथा सर्वप्रपञ्चों से अतीत होने से 'निष्प्रपंच' है । यह अच्युत पद है, अन्तरहित है, कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार से असंस्कृत है, लोकोत्तर पद है। यथा
१. मज्झिम निकाय, मागन्दिय सुत्त, पृ. ९५५, २. म.नि. छछक्क सुत्त। ३. अंगुत्तर निकाय, १, पृ. ५४;
४. अं.नि. १,पृ. ८८। ५. अं.नि.४, पृ. १७८; ६. विसुद्धिमग्ग, पृ. ११; ७. अभि. सं.पृ. ७२५ ।
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