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थेरवाद बौद्धदर्शन में निर्वाण की अवधारणा
शून्यता निर्वाण
यतः राग, द्वेष, मोह धर्मों के साथ साथ रूप स्कन्ध एवं नामस्कन्ध से शून्यताकार का लक्ष्य करके शून्यता निर्वाण भी कहा जाता है। अनिमित्त निर्वाण
अर्थात् विना आकार या संस्थान के यथा-रूप स्कन्ध एवं नाम स्कन्ध इसमें से एक रूपपिण्ड के रुप में आकार वाला, तथा दूसरा नाम स्कन्ध संस्थान (आकार) के रुप में नहीं होने पर भी, संस्थान की तरह प्रतिभासित होने के कारण अर्थात् इन दोनों में से निर्वाण इस तरह के संस्थान या आकार वाला न होने के कारण 'अनिमित्त' कहलाता है।
अप्रणिहित निर्वाण
यत: निर्वाण तृष्णा स्वभाव से प्रार्थना करने योग्य नहीं है, तथा निर्वाण में प्रार्थना करने वाली तृष्णा भी नहीं है। अतः प्रार्थना करने वाली तृष्णा के अभाव से अप्रणिहित निर्वाण भी कहलाता है।
निर्वाण को अमृत, परमपद एवं परम सुख भी कहा गया है। यथाओदहथ, मिक्खवे, सोतं अमतमधिगतं, अहं अनुसासामि, अहं धम्म देसेमि'; अर्थात् भिक्षुओं, ध्यान दो, अपना चित्त इधर लगाओ, मैने जिस अमृत को पा लिया है, उसे मैं तुम्हें बताऊँगा। 'धम्मपद' में कहा गया है कि “निब्बानं परमं सुखं'। आदि। 'मागन्दिय सत्त' में 'कतमं आरोग्यं कतमं निब्बानं' के प्रसंग में भगवान बुद्ध 'निर्वाण' के बारे में कहते हैं कि मागन्दिय! तुम सत्पुरुषों की सेवा करो, इससे तुम्हें सदुपदेश प्राप्त होगा, तथा उस सदुपदेश के सहारे तुम धर्म की गहराई तक पहुँच जाओगे, तदनुसार आचरण करोगे, और धर्मानुसार आचरण करते-करते एक दिन स्वयं ही उस धर्म की सूक्ष्मता को जान जाओगे; समझ जाओगे; कि ये सभी रोग, व्रण और शल्य (काँटा) के समान है, ऐसा समझने से ये सब रोग, व्रण; शल्य निरुद्ध हो जायेंगे। तब तेरे उपादान न करने से भव निरोध; भवनिरोध से जाति निरोध, जाति निरोध से जरा-मरण शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य, उपायास भी निरुद्ध हो जायेंगे। इस प्रकार
१. प.दी. पृ. २८१-२८२। २. महावग्ग, पृ. १६।
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