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थेरवाद बौद्धदर्शन में निर्वाण की अवधारणा
है। चूंकि यह वान नामक तृष्णा जोड़ने वाला धर्म है, इसके द्वारा एक भव का दूसरे भव से योग होता है, 'विनति संसिब्बतीति वानं' अर्थात् जो सम्यक रुप से सीता है, बुनता है, वह ‘वान' है। इस प्रकार वान नामक तृष्णा का अन्त नहीं होता है, तथा तृष्णा का समूल उच्छेद किये बिना निर्वाण सम्भव नहीं है।
___ महावग्ग में कहा गया है कि 'यदिदं सब्बसङ्घारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तहक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं" अर्थात सभी संस्कारों का प्रशमन, सभी क्लेशों का परित्याग, तृष्णा का क्षय, वैराग्य एवं दु:ख निरोध करने वाला निर्वाण है। निर्वाण की प्राप्ति से दुःख का अशेष निरोध हो जाता है।
निर्वाण का अर्थ है 'शान्ति'। यथा दीपक तब तक जलता रहता है, जब तक उसमें बत्ती और तेल मौजूद रहता है, परन्तु उसके समाप्त होते ही दीपक स्वत: शान्त हो जाता है। उसी प्रकार तृष्णा आदि क्लेशों के शान्त हो जाने पर जब यह भौतिक जीवन अपने चरम-अवसान पर पहुँच जाता है, तो वह निर्वाण कहलाता है। भगवान् बुद्ध कहते हैं कि आसक्ति संसार का बन्धन है, वितर्क में उसकी गति है, तथा तृष्णा का त्याग ही निर्वाण है। यथा
'नन्दी संयोजनो लोको, वितक्कस्स विचारणा ।
तण्हाय विप्पहानेन निब्बाणं इति वुच्चति ।। जिसकी प्राप्ति से सभी क्लेशों का क्षय हो जाये, उसे निर्वाण कहते हैं। यथा
'यस्य चाधिगमा सब्बकिलेसानं खयो भवे ।।
निब्बानमिति निद्दिठं निब्बानकुसलेन तं ।।। 'मिलिन्दप्रश्न' में निर्वाण के सम्बन्ध में जब राजा 'मिलिन्द' भिक्षु 'नागसेन' से पूंछता है, कि 'भन्ते नागसेन, “निरोधो निब्बानं'ति? अर्थात् निरोध हो जाना ही निर्वाण है। तो वे कहते हैं कि हां महाराज, निरोध हो जाना ही
१. अभिधम्मत्थ संगहो पृ. १२२। ३. बौद्धदर्शन-बलदेव उपा.। ५. अभिधम्मावतार पृ. १०८।
२. महावग्ग १८। ४. उदान।
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