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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
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यह अष्टांगिक मार्ग शील, समाधि तथा प्रज्ञा इन तीन स्कन्धों में विभक्त है-सम्यक दृष्टि और सम्यक संकल्प प्रज्ञा स्कन्ध में, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त तथा सम्यक् आजीविका-शील में तथा सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि समाधि में अन्तर्भूत हैं। इसे बुद्ध का धार्मिक मार्ग कहा जाता है। इसमें शील समाधि तथा प्रज्ञा नामक तीन सोपान हैं। ये तीनों सोपान एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। शील समाधि के लिए है। समाधि प्रज्ञा के लिए और प्रज्ञा निर्वाण के लिए है 'सील परिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो' समाधि परिभावितापञ्जा महप्फला होति, महानिसंसो पञ्जा परिभावितचित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति। निम्नगाथा में सोपानों का निरूपण सुन्दर ढंग से किया गया है
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं एतं बुद्धानसासनं ।। __ शील शारीरिक विकारों को दूर करता है। समाधि मानसिक विकारों को दूर कर चित्त को एकाग्र बनाती है। प्रज्ञा अज्ञान के अन्धकार को दूर करती है और यथार्थबोध को उत्पन्न करती है। यह आसक्तियों को निर्मूलित करती है और निर्वाण का साक्षात्कार कराती है।
जैसा मनुष्य बीज बोता है तदनुरूप फल पाता है- 'यादिसं वपते बीजं तादिसं लभते फलं। अकुशल कर्मों के सम्पादन दुःख तथा कुशल कर्मों से सुख और प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। दुःख और सुख वस्तुत: अकुशल और कुशल कर्मों के ही परिणाम हैं। कुशल कर्मों के द्वारा ही निर्वाण की प्राप्ति की जा सकती है।
भगवान् बुद्ध के समय मंगल की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के अन्धविश्वास प्रचलित थे। भगवान् बुद्ध से जब इस सन्दर्भ में कहा गया तो उन्होनें मंगल की प्राप्ति के लिए धर्म देशना दी। कुलमिलाकर १२ प्रकार की धारणाएँ मंगल सुत्त में प्राप्त होती हैं। इसमें यह कहा गया है कि मनुष्य को उन कर्मों का सम्पादन करना चाहिए जो स्वयं के लिए और दूसरों के लिए प्रत्यूह उत्पन्न करे। उसे अपने कर्तव्यों का पालन परिवार और समाज के लिए करना चाहिए और नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का निर्धारण करना चाहिए। निर्वाण का अधिगम आध्यात्मिक मूल्यों से ही संभव है।
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