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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
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संसार को अभिभूत करता है, सताता है और संसार इन आठ लोक धर्मों से चतुर्दिक आवर्तित होता है, चक्कर काटता है।
जिस व्यक्ति का चित्त इन आठ लोक धर्मों से प्रकम्पित नहीं होता है, उसका चित्त उत्तम मंगल है क्योंकि यह अकम्पनीय लोकोत्तम भाव को धारण करता है। इन आठ लोकधर्मों से क्षीणास्रव अर्हत् का चित्त कम्पित नहीं होता है और किसी दूसरे का नहीं। कहा भी है
सेलो यथा एकघनो न वातेन समीरति । एवं रूपा च सद्दा च गन्धा फस्सा च केवला ।। इट्ठा धम्मा अनिट्ठा च न पवेधेन्ति तादिनो । ठितं चित्तं विप्पमुत्तं, वयञ्चस्सानुपस्सति ।।
(म.व. २०४, अं.नि. ३।८९।९०) सेलो यथा एकघनो न वातेन समीरति ।
एव निन्दापसंसासु न समिञ्जन्ति पण्डिता ।। (धम्मपद) जिस प्रकार ठोस घनपर्वत हवा से प्रकम्पि नहीं होता है उसी प्रकार शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्शादि से इष्ट एवं अनिष्ट से क्षीणास्र व अर्हत का चित्त प्रकम्पित नहीं होता है क्योंकि अर्हत् यह जानता है कि ये लोकधर्म अशाश्वत, विपरिणामी, परिवर्तन शील हैं। अङ्गुत्तर निकाय में कहा भी गया है।
लाभो अलाभो च यसायसो च, निन्दा पसंसा च सुखं दुक्खञ्च। एते अनिच्चा मनुजेसु धम्मा, असस्सता विपरिणामधम्मा।। एते च अत्वा सतिमा सुमेधो, अवेक्खति विपरिणामधम्मे। इट्ठस्स धम्मा न मथेन्ति चित्तं, अनिट्ठतो नो पटिघातमेति ।। तस्सानुरोधा अथवा विरोधा, विधूपिता अत्थंगता न सन्ति । पदञ्च जत्वा विरजं असोकं, सम्मप्पजानाति भवस्स पारगू'ति ।।
(अं.नि.अ.व. मेत्तावग्ग) अर्तात् लाभ, अलाभ, यश, अयश, निन्दा, प्रशंसा, सुख, दुःख, ये आठ लोकधर्म मनुष्य के अनित्य, अशाश्वत तथा विपरिणाम धर्मा
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