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वर्तमान समय में बुद्ध-वचन की प्रासंगिकता
सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं एतं बुद्धानसासनं ।।' कोई भी पाप न करना महान् कार्यों का परिशोधन, मन की शुद्धि बुद्ध की यही शिक्षा है।
और यह भी कहा गया है कि शुद्धि और अशुद्धि व्यक्ति पर निर्भर करती है-कोई व्यक्ति किसी भी दूसरे व्यक्ति को शुद्ध नहीं कर सकता
'सुद्धि असुद्धि पच्चत्तं नाजो अजं विसोधये ।'
बुद्ध बारम्बार शिष्य को शिक्षा देते है कि सत्य तक पहुँचने के लिए वह व्यावहारिक उपायों का अवलम्बन करे आचरण करे न कि विश्वास उनके शिष्य का आधार है। उन्होने समझाया कि प्रभुत्व के उच्चतम स्थान पर है हमारे अन्तर की आवाज और बाहरी शक्ति के संदर्भ के बिना ही अपना त्राता है।
"अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया''
वे अपने अनुयायियों को दूसरों को शिक्षा देने से पहले अपने को ही सुधारने को कहते है
अत्तानमेव पठमं पतिरूपे निवेसये ।
अथ अजं अनुसासेय्य न किलिस्सेय्य पण्डितो ।। व्यक्ति को सबसे पहले निश्चित कर लेना चाहिए कि क्या सही है, फिर दूसरों को शिक्षा देनी चाहिए। ज्ञानी व्यक्ति अगर इस प्रकार से चले तो कष्ट नहीं पायेगा।
वे उपदेश देते है कि हमारे स्वभाव के पुनरूज्जीवन में ही हमारे उद्धार की आशा निहित है। वे कहते हैं कि व्यक्ति को अपने आचरण और अनाचरण की ओर ध्यान देना चाहिए और दूसरों के अनुचित कार्यों के प्रति नहीं।
न परेसं विलोमानि न परेसं कताकतं । अत्तनो व अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ।।
१. धम्मपद. १८३; ३. वही. १६०; ५. वही. ५०।
२. धम्मपद. १६५। ४. वही. १५८।
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