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बौद्धदर्शन में कालतत्त्व
प्रो. रामशंकर त्रिपाठी
पू. अध्यक्ष बौद्ध दर्शन विभाग सं.सं.वि.वि. वाराणसी
सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत् काल के गर्भ में स्थित है। क्योंकि सभी वस्तुएँ उत्पाद, स्थिति एवं भङ्ग इन तीन कालों में प्रतीत होती है। काल की इस निरन्तरता एवं व्यापकता को देखकर कुछ दार्शनिक उसे नित्य एवं द्रव्यसत् वस्तु मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार काल पञ्चस्कन्ध स्वभावात्मक
और संस्कृत लक्षण वाला धर्म है। उसकी वस्तुनिरपेक्ष स्वतन्त्र सत्ता बौद्ध दर्शन में मान्य नहीं है। अपि तु वह जड-चेतन धर्मों की गतिशीलता और परिवर्तनशीलता की अपेक्षा से एक प्राज्ञप्तिक धर्म है। प्रज्ञप्तिसत्ता होने पर भी बौद्ध लोग उस व्यावहारिक काल के दो भेद करते हैं, यथा-स्थूल एवं सूक्ष्म। मुहूर्त, दिन, रात्रि, मास, ऋतु, वर्ष आदि काल के स्थूल भेद हैं तथा 'क्षण' काल का सूक्ष्म भेद है। जैसे रूपी (जड़) पदार्थों का अन्तिम अवयव परमाणु होता है, उसी प्रकार काल का अन्तिम भाग ‘क्षण' कहलाता है। आभिधार्मिकों के मतानुसार समस्त हेतु-प्रत्ययों के विद्यमान होने पर जितने काल में किसी धर्म का आत्मलाभ (उत्पाद) होता है, उतना क्षण का परिमाण है। अथवा जितने काल में कोई गतिशील पदार्थ एक परमाणु से दूसरे परमाणु तक पहुँचता है, उतना क्षण का परिमाण है।
१. ते पुन: संस्कृता धर्मा रूपादिस्कन्धपञ्चकम् ।
त एवाध्वा कथावत्थु सनि:साराः सवस्तुकाः ।। द्र.-अभिकोश, १:७। २. समग्रेषु प्रत्ययेषु यावता धर्मस्यात्मलाभः, गच्छन् वा धर्मो यावता परमाणोः परमाण्वन्तरं
गच्छति...आभिधार्मिका:। द्र.-अभि.कोश भाष्य, पृ. ५३६ (बौद्धभारती-संस्करण)।
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