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बौद्धधर्म में मानवतावादी विचार : एक अनुशीलन
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त्याग, सम्पूर्ण कुशल कर्मों का संचयन और चित्त की निर्मलता के द्वारा मानव को सर्वदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह धर्म, मैत्री, करुणा, शान्ति, सद्भाव एवं समानता का सन्देश देता है। त्याग, प्रेम, ब्रह्मचर्य, सत्यवादिता आदि गुणों से युक्त मनुष्य सर्वहित और सर्वसुख प्रदान करने के लिए यत्नवान् रहता है।
मानवीय गुणों के समुच्चय को मानवता कहते हैं तथा उसके 'वाद' अथवा 'सिद्धान्त' को मानवतावाद। मानवता एक विशिष्ट पद्धति, विचारविधि अथवा क्रिया है, जिसमें मानव मात्र के जीवनमूल्यों, हितों तथा गरिमा, महिमा आदि की विचारणा नैतिक कर्तव्यों के सन्दर्भ में की जाती है। मानव चिन्तनशील प्राणी है, मननशील है, विवेकी है, अत: जिसके चिन्तन में निर्वैरता, उदारता, आत्मोपमता, सदाशयता, परोपकारिता, सहिष्णुता, सुमनस्कता, क्षमाशीलता, दयालुता आदि की परमोदात्त भावनाएँ समाहित हैं, वही मानव है और वही मानवता के गुणधर्मों से अनुप्राणित है। बौद्धधर्म में इन गुणों की चर्चा सर्वत्र पायी जाती है। मानवता का मूल निर्वैरता है। आत्मोपमता की भावना के विद्यमान होने पर ही निर्वैरता जन्म लेती है। दूसरों के साथ प्रेम एवं मैत्री भावना से वैर विरोध उपशमित हो जाते हैं। क्योंकि वैर से वैर शान्त नहीं होता वरन् अवैर से वैर शान्त होता है, यह सनातन नियम है। अत: प्रेम, सहानुभूति एवं मैत्री की भावना मानवता के परिचायक हैं। निर्वैर वही है जो सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर मैत्रीभावना से अनुप्राणित है। त्रिपिटक में यह धारणा सर्वत्र व्यक्त की गई है कि 'दूसरों पर विजय की आकांक्षा शत्रुता को जन्म देती है।
युद्ध, संघर्ष और हिंसा से कोई समस्या नहीं सुलझती वरन् इससे भय, संत्रास एवं प्रतिरोध की भावना उत्पन्न होती है। द्वेष के कारण ही प्रतिहिंसा की भावना जन्म लेती है। अत: द्वेष को दूर करने के लिए मैत्री भावना का अभ्यास करना चाहिए। क्योंकि विजय घृणा एवं वैर को जन्म देता है तथा पराजित दुःखी होता है; इसलिए उपशान्त मनुष्य जय, पराजय को छोड़कर शान्त रहता है
१. सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं एतं बुद्धानसासनं ।। (ध.प.) २. नहि वेरेन वेरानि सम्मन्तीधकुदाचनं । ___ अवेरेन हि सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ।। (ध.प.)
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