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श्रमणविद्या-३
उन सात में से ज्ञान प्रस्थान की एक विस्तृत टीका थी जिसे महाविभाष्य कहते हैं। वही सर्वास्तिवाद-अभिधर्म का मूल आधार है। उसी के आधार पर आचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोश लिखा है जो वैभाषिक सौत्रान्तिक दोनों द्वारा मान्य अभिधर्म शास्त्र है। उक्त सात अभिधर्म आगमों को वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक दोनों बुद्ध का वचन नहीं मानते हैं। कहा भी है कि :
ज्ञान प्रस्थानम् कात्यायनेन प्रकरणम् वसुमित्रेण । विज्ञान-कायश्च देवशर्मेन धातुकायः पूर्णेन कृतः । धर्मस्कन्धः शारिपुत्रेण मौद्गल्यायेन प्रज्ञप्तशास्त्रम् ।।
गतिपर्याय महाकौष्ठिलेन। यद्यपि ये अभिधर्म बुद्धवचन नहीं भी है तो भी वे अति प्राचीन काल के हैं। परन्तु आधुनिक इतिहासकार एवं अन्वेषक उक्त शास्त्रों को शारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन आदि की रचना नहीं मानते हैं? अपि तु अशोक कालीन कथावस्तु के बाद क्रमश: अस्तित्व में आए हैं। आधुनिक विज्ञान एवं नई तकनीक आदि के आधार पर इतिहास की खोज करने पर यह माना जाता है, कि जिस प्रकार मानव की बुद्धि का विकास हुआ, उसी के साथ-साथ अभिधर्म शास्त्रों का भी क्रमश: विकास हुआ तथा नए-नए शास्त्रों की रचना हुई। अत: ऐसा माना जाता है कि अभिधर्म शास्त्र में गिने जाने वाले समस्त शास्त्र किसी एक समय के न होकर भिन्न-भिन्न कालों में रचित हैं। तिब्बत में ऐसे तथ्यों पर परीक्षा करने की परम्परा नहीं है। सभी सूत्र बुद्धवचन मानकर उनकी व्याख्या की जाती है। आधुनिक इतिहासकार जिन जिन तथ्यों के आधार पर खोज करते हैं, तथा व्याख्या करते हैं, उनको समझना आवश्यक है। यदि उनका खण्डन भी करना चाहें तो पूर्वपक्ष अर्थात् उनके मत को ठीक से समझना चाहिए। (ख) महायानी पिटकों का प्रादुर्भाव
हम सभी महायानी पिटकों को बुद्ध का वचन मानते हैं। परन्तु इतिहासकार इनको अशोक के बाद के मानते हैं। उतना ही नहीं उनका यह मानना है कि 'अशोक के बाद बौद्धों में मूर्ति की पूजा आदि करने की प्रथा हुई उससे पहले धर्मचक्र तथा पद्म आदि लाक्षणिक वस्तुओं तथा ग्रन्थों की पूजा होती थी। अशोक के बाद क्रमश: त्रिकाय, दश प्रज्ञापारमिता और अन्य महायानी सिद्धान्तों का विकास हुआ तथा विभिन्न महायानी पिटकों की रचना हुई।'
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