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अभिधर्म और माध्यमिक
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हो गयी थी जिसके विषय में अज्ञान तथा विप्रतिपतियाँ उत्पन्न हो गई थी। उन्हें दूर करने के लिए विनय पिटक पर केन्द्रित होकर उनका संगायन किया गया।
बुद्ध के जीवन काल में उन्होंने अनेक विनय जनों को जो उपदेश दिए थे-जैसे चतुर-आर्यसत्य, पुद्गलनैरात्म्य, समाधियों आदि जो उनके विचार थे, जिनको सुन्दर उपमाओं के साथ प्रतिपादित किया था और जातक आदि कथासम्बन्धित उन सभी का सूत्र पिटक में संगायन किया गया।
तिब्बती शास्त्रों में भी कहा गया है कि बुद्ध ने अभिधर्म के उपदेश अलग से नहीं दिया, अपि तु यत्र-तत्र बिखरे रूप में उन्होंने जो कहा, उसको कालान्तर में सात अर्हतों ने संकलित किया है। इससे यह तथ्य सामने आता है कि अभिधर्म पिटक शुरु से नहीं था; अपितु बाद में क्रमश: अस्तित्व में आया है।
हीनयानियों का सबसे प्रचलित अभिधर्म कथा वस्तु है जिसकी रचना अशोक के काल में तिस्समोग्गलीपुत्र ने की थी। मोग्गलीपुत्र ने ही तृतीय संगीति की अध्यक्षता की तथा ईसापूर्व तृतीय शताब्दि में जीवित था। उन्होंने प्रश्नउत्तर के रूप में कथावस्तु की रचना की है और अन्य सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन किया है। विशेषतः आत्मा है या नहीं? इस प्रश्न पर बौद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
यद्यपि यह शास्त्र ईशा पूर्व तृतीय शताब्दि का है; पर इसमें उन सिद्धान्तों का भी मत उल्लिखित है जो बहुत बाद में हुए थे। इस लिए कथा वस्तु में भी बाद के अंक संकलित हुए हैं। इन तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि कथा वस्तु के बाद अभिधर्म पिटक के साहित्य क्रमशः अस्तित्व में आए थे।
__ निकायों का विभाजन होकर अठारह तक हो गए थे। प्रारम्भ में वे विनय पिटक और विनय की शिक्षा के विषय में असहमत होने के कारण विभाजित हुए थे। परन्तु क्रमश: दार्शनिक दृष्टि से भी असहमत हो गए। उन सब के मत में त्रिपिटक और विशेषतः अभिधर्म पिटक की व्यवस्था हुई होगी; तथापि सर्वास्तिवाद तथा स्थविरवाद सबसे प्रधान तथा प्रसिद्ध है।
सर्वास्तिवाद के अनुसार अभिधर्म के सात ग्रन्थ है। यथा--ज्ञान प्रस्थान, प्रकरण, विज्ञानकाय, धर्मस्कन्ध, धातुकाय, प्रज्ञप्तशास्त्र और गतिपर्याय। गति पर्याय के बारे में थोड़ा सा विचार करना उचित होगा। संस्कृत में “संगीति पर्याय'' लिखा है, परन्तु तिब्बती के अनुसार इसे गति पर्याय होना चाहिए। संस्कृत तथा भोट संस्करणों में से एक में गलती हुई होगी।
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