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श्रमणविद्या-३
तण्हाय जायते सोको तण्हाय जायते भयं ।
तण्हाय विप्यमुत्तस्स नत्थि सोको कुतोभयं ।। अनित्य और दुःखबहुल शरीर की निस्सारता का बोध जब मनुष्य को हो जाता है, तब वह सदा जागरूक एवं कृतोद्योग बनता है। जागरूकता से अप्रमाद सुदृढ़ होता है। यही कारण है कि अप्रमाद को अमृतपद कहा गया है।
___ मनुष्य को धन सञ्चय की लालसा पर विजय पाना चाहिए और भोजन में मात्रज्ञ होना चाहिए। जो इस प्रकार के आचरण से युक्त होता है वह आकाशचारी पक्षी की तरह संसार में स्वच्छन्द विहार करता है। उसकी गति दुरन्वया होती है
येसं सन्निचयो नत्थि ये परिञातभोजना । सुञतो अनिमित्तो च विमोक्खो यस्स गोचरो ।।
आकासे व सकुन्तानं गति तेसं दुरन्नया ।। आत्मविजय को मानवता का महान् गण बतलाया गया है। वही सबसे बड़ा योद्धा है, जो आत्मजेता है। युद्ध क्षेत्र में सहस्रों मनुष्यों को जीतने से श्रेष्ठ अपने को जीतने वाला है
यो सहस्सं सहस्सेन संगामेमानुसेजिने ।
एकं व जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो ।। मानवता के विकास के लिए संतोष का होना अपरिहार्य है। शरीर को रोगमुक्त रखते हुए संतोषरूपी धन को बढ़ाना चाहिए और विश्वास को ज्ञाति के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहिए।
आरोग्य परमालाभा सन्तुट्ठिपरमं धनं । विस्सासपरमा आति निब्बानं परमं सुखं ।।
१. ध.प. गाथा, २१६॥ २. अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं ।
अप्पमत्ता न मीय्यन्ति ये पमत्ता यथा मता।। ध.प.गा. २१ । ३. ध.प. गाथा ९२, अं.नि. १ पृ. ८६।। ४. ध.प. गाथा १०४।
५. ध.प. गाथा २०४।
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