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बौद्धदर्शन में कालतत्त्व
सभी वस्तुओं का अस्तित्व क्षणमात्र हैं—ऐसा मानने के कारण बौद्ध क्षणभङ्गवादी कहलाते हैं। क्षणवाद ही उनका कालसिद्धान्त है। वस्तुवादी बौद्धों के मतानुसार स्वलक्षण ही वस्तु है और वह सर्वथा क्षणिक है। इसलिए बौद्धों में काल का अत्यधिक महत्त्व है।
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बौद्धेतर धारा बौद्ध धारा के अनुसार ही काल के स्वरूप का निरुपण करना इस निबन्ध का उद्देश्य है, फिर भी बौद्धेतर प्राचीन वैदिक वाङ्मय के अवलोकन से काल के विषय में अनेक मान्यताएं परिलक्षित होती हैं। उनका हम चार वर्गों में विभाजन कर सकते हैं, यथा- १. भगवद्-रूप काल, २. नित्य द्रव्य स्वरूप काल, ३. अनित्य द्रव्य स्वरूप काल तथा ४. प्राज्ञप्तिक या व्यावहारिक काल। १. भगवद्-रूप काल
वैदिक वाङ्मय में ऋक् संहिता', अथर्व संहिता, भागवत पुराण', महाभारत, आदि में काल को भगवद्-रूप मानकर उसकी स्तुतियाँ उपलब्ध होती हैं। २. नित्य द्रव्य-स्वरूप काल
वैशेषिक दर्शन में कल ६ या ७ पदार्थ माने जाते हैं, उनमें एक द्रव्य पदार्थ है। द्रव्य पदार्थ भी ९ प्रकार है, यथा पृथिवी, अप् तेजस्, वायु, काल, आकाश, दिक्, आत्मन् और मनस्। काल द्रव्य नित्य और विभु माना गया है। क्षण, अहोरात्र, मास, ऋतु, वर्ष आदि इसी से अभिव्यक्त होते हैं। अनुमान से इसके अस्तित्व की सिद्धि की जाती है। न्यायदर्शन की मान्यता भी लगभग वैशेषिक दर्शन के अनुसार ही है। इनके मत में भी क्षण, दिवस, मास, ऋतु, वर्ष आदि का आधारभूत द्रव्य काल ही है। मीमांसा दर्शन के भाट्ट मत के अनुसार काल एक और विभु (व्यापक) द्रव्य है। प्रभाकर की भी करीब-करीब यही मान्यता है। काल की इन्द्रियग्राह्यता और अतीन्द्रियता के विषय में ही दोनों में मतभेद है।
१. ऋक् संहिता २।३ वामीय सूक्त। २. अथर्व संहिता कालसूक्त। ३. भागवत पुराण ३।८।११। ४. महाभारत, शान्ति पर्व, मोक्षधर्म।
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