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बौद्धदर्शन में कालतत्त्व
वस्तु अपने कारणों से विनाशस्वभाव ही उत्पन्न होती हैं। वे उत्पत्ति के लिए तो कारण की अपेक्षा करती हैं, किन्तु नाश या भङ्ग के लिए किसी की अपेक्षा नहीं करती, क्योंकि भङ्ग तो उनका स्वभाव ही है। इस तरह कार्यकारण परम्परा सर्वदा चलती रहती है। यही प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त है। इसीलिए भगवान् कालवादी हैं। स्थविरवाद
स्थविरवादी मतानुसार काल एक द्रव्यसत् धर्म नहीं, अपितु प्रज्ञप्तिसत् धर्म है। प्रज्ञप्ति भी दो प्रकार की होती है—प्रज्ञप्यमान प्रज्ञप्ति और प्रज्ञापन प्रज्ञप्ति। प्रज्ञप्यमान प्रज्ञप्ति 'अर्थप्रज्ञप्ति' भी कहलाती है। जो धर्म अविद्यमान होते हुए भी विद्यमान पारमार्थिक धर्मों के बल से कल्पनाबुद्धि या मनोविज्ञान के विषय होते हैं, वे अर्थप्रज्ञप्ति या प्रज्ञप्यमान प्रज्ञप्ति हैं। इसके अनेक भेद हैं, यथा-सन्तान प्रज्ञप्ति, समूह प्रज्ञप्ति आदि। शब्द सुनने के बाद जो विषय बुद्धि में आभासित होता है, वह प्रज्ञापन प्रज्ञप्ति या शब्दप्रज्ञप्ति कहलाता है।
इस तरह काल अर्थप्रज्ञप्ति या प्रज्ञप्यमान प्रज्ञप्ति के अन्तर्गत गृहीत होता है। उत्पाद-स्थिति-भङ्गात्मक क्षणिक धर्म ही इनके मतानुसार पारमार्थिक धर्म होते हैं। वस्तुतः धर्म ही अतीत, अनागत या प्रत्युत्पन्न होते हैं, इनके अतिरिक्त कोई 'काल' नामक पदार्थ वस्तुसत् नहीं है। इसीलिए इनके मत में काल एक प्रज्ञप्तिसत् धर्म माना गया है। यह चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि की गति एवं परिवर्तन की अपेक्षा से पूर्वाह्न, सायाह्न, दिवस, रात्रि आदि के रूप में व्यवहृत होता है तथा अहोरात्र आदि कालसञ्चय की अपेक्षा से मास, संवत्सर आदि के रूप में व्यवहत होता है। इस प्रकार उत्पाद, स्थिति, भङ्गात्मक क्रिया ही इनके मत में 'काल' है। इससे अतिरिक्त 'काल' नामक कोई द्रव्यसत् विद्यमान पदार्थ नहीं है धम्मसंगणि-मूलटीका में भी कहा गया है___“कालो हि चित्तपरिच्छिन्नो सभावतो अविज्जमानो पि आधारभावेन सञ्जातो अधिकरणं ति वुत्तो'।
१. द्र.-दीघनिकाय पालि, ३ भाग, पृ. १०४ (नालन्दासंस्करण)। २. तं तं उपादाय पत्तो कालो वोहारमत्तको।
पुञ्जो फस्सादिधम्मानं समूहोति विभावितो।। द्र.- अट्ठसालिनी, पृ. ४९। ३. द्र.-धम्मसंगणि-मूलटीका एवं अनुटीका, पृ. ११० (सं.सं.वि.वि. १९८८)
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