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बौद्धदर्शन में कालतत्त्व
विषय होते हैं। यदि विज्ञान के विषय सर्वदा सत् ही हों तो इस विचार के लिए कोई अवसर ही नहीं रहेगा कि 'यह धर्म सत् है या असत्' । अतः अतीत और अनागत असत् ही है।
५. वैभाषिक
अतीत कुशल और अकुशल कर्म होते हैं, क्योंकि भविष्य में उनका इष्ट-अनिष्ट फल देखा जाता है। जब फल की उत्पत्ति होती है, उस काल में कर्म प्रत्युत्पन्न तो होता नहीं, यदि अतीत की भी सत्ता न मानी जाएगी तो कर्म - कर्मफल की सारी व्यवस्था ही टूट जाएगी । अतः अतीत की सत्ता अवश्य माननी चाहिए।
सौत्रान्तिक- - हम अतीत कर्म, जो निरुद्ध हो चुका है, उस से भविष्य में फल की उत्पत्ति नहीं मानते तथा कर्म-कर्मफल व्यवस्था का अपवाद (निषेध) भी नहीं करते। हम तो कर्म, जो कि चेतना है, उसका सन्तति के रूप में ऐसा परिणमन होना स्वीकार करते हैं, जिससे भविष्य में फल की उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार अतीत और निरुद्ध बीज से फल की उत्पत्ति नहीं होती, अपि तु बीज की सन्तति चलती रहती है, उसमें क्रमश: अङ्कुर, पत्र, काण्ड (तना) आदि परिणमित होते रहते हैं और अन्त में फल का उत्पाद होता है। प्रारम्भ में बीज ने जो फलोत्पाद का सामर्थ्य निहित किया था, उसी से परम्परया फल का उत्पाद होता है, उसी प्रकार कर्म द्वारा स्थापित सामर्थ्य के वश से परम्परया फल की उत्पत्ति होती है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि फल की उत्पत्ति होने तक अतीत कर्म कहीं अलग विद्यमान रहता हो। वह तो अपने अनन्तरवर्ती चित्त में सामर्थ्य पैदा कर निरुद्ध हो जाता है। इस तरह परम्परया उससे फल की उत्पत्ति होती है। फलतः अतीत और अनागत द्रव्यतः सत् नहीं हैं। वैभाषिक
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भगवान् बुद्ध और समाहित आर्य पुद्गलों को अतीत और अनागत का प्रत्यक्ष के समान स्पष्ट अवबोध होता है, अतः अतीत, अनागत की सत्ता है ?
सौत्रान्तिक— प्रतीत्यसमुत्पाद के सम्यग् ज्ञाता होने के कारण भगवान् बुद्ध और समाहित आर्य पुद्गलों को हेतु और फल का अभ्रान्त और स्पष्ट ज्ञान होता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि अतीत और अनागत धर्मों की द्रव्यसत्ता होने के कारण वे उनका साक्षात्कार करते हैं। समाधि के बल से और
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