________________
बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
अनत्थजननो लोभो, लोभो चित्तप्पकोपनो । भयमन्तरतो जातं तं जनो नावबुज्झति ।। दुट्ठो अत्थं न जानाति दुट्ठो धम्मं न पस्सति । अन्धतमं तदा होति, यं दोसो सहते नरं ।। यो च दोसं पहत्वान दोसनेय्ये न दुस्सति । दोसो पहीयति तम्हा तालपक्खो व बन्धना ।। अनत्थजननो मोहो मोहो चित्तप्पकोपनो । भयमन्तरतो जातो तं जनो नावबुज्झति ।। मूल्हो अत्थं न जानाति मूल्हो धम्मं न पस्सति । अन्धतमं तदा होति यं मोहो सहते नरं ।। यो च मोहं पहत्वान मोहनेय्ये न मुह्यति ।
मोहं विहन्ति सो सब्बं आदिच्चवुदयं तमंति ।। लोभ अनर्थ को उत्पन्न करता है, यह लोभ चित्त को उत्तेजित करता है। व्यक्ति उस भय को नहीं देखता है जो उसके भीतर से उत्पन्न होता है। राग से अनुशासित या प्रभावित व्यक्ति उचित और नियम को नहीं जानता वह व्यक्ति जो राग युक्त होता है, अन्धतम हो जाता है। जो द्वेष को नष्ट कर दूषणीय वस्तु से प्रदुष्ट नहीं होता है। उसके द्वेष उसी प्रकार गिर जाते हैं जैसे कमल से जल बिन्दु गिर जाते हैं। मोह अनर्थ को उत्पन्न करता है, वह चित्त को उत्तेजित करता है। वह भीतर से उत्पन्न होने वाले भय को नहीं देखता है। वह उचित को तथा धर्म को भी नहीं जानता है। जो मोह के प्रभाव में रहता है, वह अन्धकारमय हो जाता है। जो मोह को विनष्ट कर मोहनीय वस्तुओं से मोहित नहीं होता है, उसका सभी मोह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सूर्योदय के होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है। - विरजं अर्थात् राग, द्वेष तथा मोह से विगत होना ही विरज होना है। यह विरजता ही उत्तम मङ्गल है। विरज होकर मनुष्य निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। वह वीततृष्ण हो जाता है। वह प्रज्ञा से यह जान लेता है कि दुःख नहीं है। तृष्णा से रहित चित्त की यह अवस्था, सर्वश्रेष्ठ मंगल है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org