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श्रमणविद्या- ३
लमेथ मानं पूजं च पिता वा पुत्तकारणा । यस्मा च संगहा एते समवेक्खन्ति पण्डिता । तस्मा महत्तं पप्पोन्ति पसंसा च भवन्ति ते ।।
इस प्रकार हित चाहने वाले अपने माता-पिता की निष्ठापूर्वक सेवा करते हैं' वे सदा सुखपूर्वक जीवन-यापन करते हैं और मनोवांछित फल को प्राप्त करते हुए सर्वदा विप्रसन्न रहते हैं। जो प्रभूत धन रहने पर भी वृद्ध माता-पिता (जिण्णकं गतयोब्बनं ) की सेवा नहीं करते हैं उसे वृषल समझना चाहिएयो मातरं पितरं वा जिण्णकं गतयोब्बनं ।
पहु सन्तो न भरति, तं जञा वसलो इति ।। सु. नि. वसलसुत्त
इस प्रकार भगवान बुद्ध ने माता-पिता की सेवा को उत्तम मंगल कहा है क्योंकि माता-पिता की सेवा करने से दोनों लोकों में लोगों की प्रतिष्ठा होती है और वे अपरिमित आनन्द के भागी होते हैं।
(२) पुत्तदारस्ससङ्गहो अर्थात पुत्र तथा स्त्री का संग्रह अर्थात् पालन करना उत्तम मङ्गल है। 'पुत्र' (पुत्र) शब्द का प्रयोग यहाँ पुत्रों दुहिताओं दोनों के लिए हुआ हैं । इतिवृत्तक के पुत्रसुत्त में भगवान् बुद्ध ने कहा है कि पुत्र तीन प्रकार के होते हैं- अतिजात, अनुजात तथा अवजात - 'इमे खो भिक्खवे, तयो पुत्ता सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं -
अतिजातं अनुजातं पुत्तमिच्छन्ति पण्डिता ।
अवजातं न इच्छान्ति यो होति कुलमन्धिनो ।। ( इति वु. - पुत्त सुत्त)
जो पुत्र अतिजात प्रणीतोत्पन्न और अनुजात समानोत्पन्न होते हैं, उन्हें पण्डित चाहते हैं और जो अवजात हीनोत्पन्न होते हैं उन्हें पण्डित लोग नहीं चाहते हैं। क्योंकि वे कुल के उच्छेदक होते हैं।
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सङ्गहो संग्रह का अर्थ है— सहयता प्रदान करना, ठीक ढंग से पुत्र दारा का अनुपालन करना । इसे उत्तम मङ्गल कहा गया हैं । जो माता-पिता अपने बच्चों का भरण-पोषण करते हैं। उनके कृत्यों का सम्पादन करते हैं। मृत प्रेतों के निमित्त श्राद्ध - दान करते हैं। कुलवंश की परम्परा को सुरक्षित रखते हैं पुत्रों के दायाद को सुरक्षित रखते हैं। उनके पुत्र भी अपने माता-पिता की भरण-पोषण करते है। कुलवंश की परम्परा को बनाए रखते हैं, उत्तराधिकार
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