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श्रमणविद्या-३
धार्मिक जीवन के सिद्धान्त
धार्मिक जीवन की प्रभास्वरता के लिए मन का प्रभास्वर एवं पर्यवदात होना अपरिहार्य है। प्रभास्वर एवं निर्मल मन के द्वारा ही कुशल कर्मों एवं दिव्य आचरणों का संपादन संभव है। मन के संक्लिष्ट होने पर जो कार्य होते हैं, वे सर्वथा अकुशल होते हैं। धम्मपद में कहा गया है कि मन सभी धर्मों का अग्रणी है, वह मनोमय (अतिसूक्ष्म) है यदि कोई प्रदुष्ट मन से बोलता या करता है तो दुःख उसका पीछा वैसे ही करता है जैसे गाड़ी में जुते बैल के पैर का पीछा चक्का करता हैमनो पुब्बङ्गमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुद्वेन भासति वा करोति वा । ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व वहतो पदं ।। (धम्मपद १।१) यहाँ धार्मिक जीवन का अर्थ है वह बौद्ध जो बुद्ध में अटूट आस्था और अटल विश्वास रखते हैं। ये बौद्ध चार संघों में विभक्त हैंभिक्खुभिक्खुनी, उपासक तथा उपसिका। यह संघ भी दो वर्गों में विभक्त हैंभिक्षु जीवन तथा उपासक जीवन। ये बौद्ध धर्म का अनुपालन संसार में दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए करते हैं। मङ्गलसुत्त में उपदिष्ट उपदेश मङ्गल अर्थात् निर्वाण के अधिगम के लिए निर्देश का कार्य करते हैं।
(९) आरति-विरति पापा- अर्थात् पाप से आरति तथा विरति उत्तम मंगल है। पापकर्मों में दोष देखकर मानसिक अनभिरति अनासक्ति को आरति कहते है। 'आरति नाम पापे आदीनवदस्साविनो मनसा एवं अनभिरिति कर्मद्वार के द्वारा काय और वचन से विरमण को विरति कहते हैं 'विरति नाम कम्मद्वारवसेन कायवाचाहि विरमणं' विरति तीन प्रकार की होती हैसम्पत्तविरति, समादानविरति तथा समुच्छेद विरति। सम्प्राप्तवस्तुओं से विरति को सम्पत्त विरति, कहते हैं, शिक्षापदसमादान के द्वारा विरति को समादान विरति कहते है तथा आर्यमार्गसम्प्रयुक्त विरति को समुच्छेदविरति कहते हैं, इससे पाँच प्रकार का भय और वैर उपशान्त होते हैं।
पापकर्मों से विरति के बारे में भगवान् बुद्ध ने कहा है कि प्राणातिपात हिंसा अदिन्नादान चोरी मुसावाद असत्यवचन तथा परदारगमन दूसरे की स्त्री के साथ गमन गर्हित है। पण्डित अर्थात् ज्ञानी जन इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं
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