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श्रमणविद्या- ३
भारतीय वाङ्मय में दान के कई प्रकारों का वर्णन मिलता है। सात्त्विकदान, राजसदान तथा तामसदान । अन्यदानों में धर्मदान, अर्थदान, भयदान, कामदान, करुणादान तथा अधमदान का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इन सभी दानों में धर्मदान को सर्वश्रेष्ठ दान कहा गया है और यह धारणा व्यक्त की गयी है कि धर्मदान सभी दानों को जीत लेता है
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धम्मदानं सब्बदानं जिनाति, सब्बंरसं धम्मरसं जिनाति । सब्बंरतिं धम्मरतिं जिनाति, तण्हक्खयो सब्ब दुक्खं जिनाति ।। (धम्मपद )
भगवान् बुद्ध ने कहा है कि दान उसे देना चाहिए जो सच्चरित्र, सत्यनिष्ठ, ब्रह्मभूत, रागद्वेष एवं मोहमुक्त, अहिसंक तथा जो अमर्षशून्य हो । श्रद्धापूर्वक दिया गया अल्पदान भी महान् फलवाला होता है। दान और युद्ध को समान माना गया है। अल्प सेना भी जैसे बहुतों को जीत लेता है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक दिया गया अल्पदान से भी सत्त्व परलोक में सुखी होता है । धर्मलब्ध और आरब्धवीर्य को जो दान देता है, वही यम की वैतरणी को पार कर दिव्यस्थानों को प्राप्त करता है
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दानं च युद्धं च समानमाहु, अप्पा पि सन्ता बहुके जिनन्ति । अप्पं चे सद्धहानो ददाति तेनेव सो होति सुखी परत्था ।। यो धम्मलद्धस्स ददाति दानं, उट्ठानविरियाधिगतस्स जन्तु । अतिक्कम्म सो वेतरणिं यमस्स दिब्बानि ठानानि उपेतिमञ्चो ।। (सं.नि. १ पृ.)
भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जीवलोक में जो दक्षिणेय्य हैं, उनका चयन कर दिया गया दान उसी प्रकार महान फलवाला होता है जिस प्रकार सुन्दर खेत में बोया गया बीज महान फलवाला होता है
विचेय्यदानं सुगतप्पसत्थं, ये दक्खिणेय्या इध जीवलोके । एतेसु दिन्नानि महफ्फलानि, बीजानि वृत्तानि यथा सुखेत्ते ।। सद्धा हि दानं बहुधा पसत्थं दाना च खो धम्मपदं व सेय्यो । पुब्बे च हि पुब्बतरो च सन्तो, निब्बानमेवज्झगमुंसपञ्ज ।।
(सं.नि. १ पृ.)
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