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पवयणसारो ]
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करके आगे कहूंगा जो करना है ||४३| ( तसि) उन पूर्व में कहे हुए पाँच परमेष्ठियों में (बिसुद्ध दंसणणाणपणा समं) विशुद्ध दर्शन ज्ञानमयी लक्षणधारी प्रधान आश्रम को (समासिज्ज ) भले प्रकार प्राप्त होकर ( सम्म) साम्यभाव रूप चारित्र को ( उपसंपयामि) भले प्रकार धारण करता हूँ ( जत्तो) जिस साम्यभावरूप चारित्र से ( निव्वाणसंपत्ती) निर्वाण की प्राप्ति होती है ||५||
यहाँ टीकाकार खुलासा करते हैं कि मैं आराधना करने वाला हूँ तथा ये अहंत आदिक आराधना करने के योग्य हैं, ऐसे आराध्य - आराधक का जहाँ विकल्प है, उसे इंत नमस्कार कहते हैं तथा रागद्वेषादि औपाधिक भाव के विकल्पों से रहित जो परम समाधि है, उसके बल से आत्मा ही आराध्य - आराधक भाव होना अर्थात् दूसरा कोई भिन्न पूज्य पूजक नहीं है, मैं हो पूज्य हूँ, मैं ही पूजारी हूँ, ऐसा एकत्वभाव स्थिरता रूप होना, उसे अद्वैत नमस्कार कहते हैं। पूर्व गाथाओं में कहे गए पाँच परमेष्ठियों को इस लक्षण रूप द्वैत अथवा अद्भुत नमस्कार करके मठ चैत्यालय आदि व्यवहार आश्रम से विलक्षण भावाश्रम रूप जो मुख्य आश्रम है उसको प्राप्त होकर मैं वीतरागचारित्र को आश्रय करता हूँ । अर्थात् रागादिकों से भिन्न यह अपने आत्मा से उत्पन्न सुख स्वभाव का रखने वाला परमात्मा है, सो ही निश्चय से मैं हूँ। ऐसा भेदज्ञान तथा वही परमात्मस्वभाव सब तरह से ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि रूपी सम्यग्दर्शन है, इस तरह दर्शन ज्ञान स्वभावमयी भावाश्रम है । इस भावाश्रम - पूर्वक आचरण में आता हुआ, जो पुण्य-बंध का कारण सरागचारित्र है, उसे हेय जानकर त्याग करके निश्चल शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप वीतरागचारित्र भाव को ग्रहण करता हूँ ।
अथायमेव वीतराग - सरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयत्वं विवेचयति-संप ज्जदि णिवाणं देवासुरमनुयरायविहहिं ।
जीवस चरितादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥ ६॥ संपद्यते निर्वाणं देवासुरमनुज राजविभवैः ।
जीवस्य चारित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् || ६ ||
संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः, तत एव च सरागाद्द बासुरमनुज राजभिवक्लेशरूपो बन्धः । अतो मुमुक्षुणेष्ट फलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपावेयमनिष्टफलत्वात् सरागचारित्रं हेयम् || ६ ||
(1) संपज्जर ( ज० वृ० ) ।