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। पश्यणसारो
परम समाधिरूपी जहाज पर चढ़कर संसार समुद्र से तिरने वाले अथवा दूसरे जीवों को संसार सागर से पार होने का उपाय-मय एक जहाजस्वरूप (वरदमाणं) सब तरह अपने उन्नतरूप ज्ञान को धरने वाले तथा रत्नत्रयमय धर्म तत्व के उपदेश करने वाले श्री वर्धमान तीर्थकर परमदेव को (पणमामि) नमस्कार करता हूँ ॥१॥
(पुण) फिर मैं (विसुद्धसब्भाव) निर्मल आत्मा के अनुभव के बल से सर्व आवरण को दूरकर केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव को प्राप्त होने वाले (सेसे तिस्थयरे) शेष वृषभ आदि पाश्वनाथ पर्यंत २३ तीर्थकरों को (ससम्बसिद्ध) और शुद्ध आत्मा को प्राप्तिरूप सर्व सिद्ध महाराजों को (य) तथा णाणसणचरिततश्योरियायारे) सर्व प्रकार विशद्धद्रव्य गुण पर्यायमय-चैतन्य वस्तु में जो रागद्वेष आदि विकल्पों से रहित निश्चल चित्त का वर्तना उसमें अंतर्भूत जो व्यवहारवर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और बीर्य सहकारी कारण से उत्पन्न निश्चय पंचाचार उसमें परिणमन करने से यथार्थ पंचाचार को पालने वाले (समणे) श्रमण शब्द से थाच्य आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं को नमस्कार करता है ॥२॥ (ते ते सव्ये) उन उन पूर्व में कहे हुए पंच परमेष्ठियों को (समगं समगं) समुदाय रूप वंदना को अपेक्षा एक साथ तथा (पत्तेयं पत्तेयं) प्रत्येक को अलग-अलग चंदना की अपेक्षा प्रत्येक को (य) और (माणुसे खेत्ते) मनुष्यों को रहने के क्षेत्र हाईद्वीप में (घटते) वर्तमान (अरहंते) अरहंतों को (यंदामि) मैं वन्दना करता हूँ। भाव यह कि वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों का अभाव है परन्तु डाईद्वीप के पांच विदेहों में सीमन्धर स्वामी
आदि २० तीर्थकर परमदेव विराजमान हैं, इन सबके साथ उक्त पहले कहे हुए पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूँ। नमस्कार दो प्रकार का होता है द्रव्य और भाव, इनमें भाव-नमस्कार मुख्य है। इस भाव नमस्कार को मैं मोक्ष की साधन रूप सिद्ध-भक्ति तथा योग-भक्ति से करता हूँ। मोक्ष रूप लक्ष्मी का स्वयंवर मंडप रूप जिनेन्द्र के दीक्षाकाल में मंगलाचार रूप तो अनन्तजानादि सिद्ध गुणों की भावना करना उसको सिद्धभक्ति कहते हैं। तैसे ही निर्मल समाशि में परिणमन रूप परम योगियों के गुणों को अथवा परम योग के गुणों को भावना करना सो योग-भक्ति है। इस तरह इस गाथा में विदेहों के तीर्थंकरों के नमस्कार की मुख्यता से कथन किया गया है ॥३॥ (सम्वेसि) सर्व ही (अरहंताणं) अरहंतों को (सिद्धाणं) आठ कर्म रहित सिद्धों को (गणहराणं) चार ज्ञान के धारी गणधर आचार्यों को (तह) तथा (अज्मावयवगाण) उपाध्याय समूह को और (चेव) तैसे ही (साहूण) साधुओं को (णमो किच्चा) भाव और द्रध्य से नमस्कार