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णमोकार र
ॐ ह्रीं पहं ब्रह्मशाय नमः ॥२६॥ केवली भी मापकी स्तुति करते हैं प्रथवा केवलज्ञान के स्वामी हैं इसलिए ब्रह्मश हैं ॥२६३।।
ॐ ह्रीं मह महा ब्रह्मपदेश्वराय नमः ॥२६४॥ मापमोक्ष के स्वामी प्रथया समवशरण के स्वामी होने से महाब्रह्मपदेश्वर हैं ।२६४।।
ॐ ह्रीं अहं सुप्रसन्नाय नमः ।।२६५।। पाप भक्तों को स्वर्ग मोक्ष देने से प्रथवा सदा पानन्दस्वरूप होने से सुप्रसन्न हैं ॥२६॥
ॐ ह्रीं अहं प्रसन्नात्माय नमः॥२६६।। प्राप मल रहित होने से प्रसन्नात्मा हैं ॥२६६।।
ॐ ह्रीं मह ज्ञानधर्मदमप्रभवे नमः ।।२६७11 माप केवलज्ञान दया धर्म और इन्द्रिय निग्रहरूप सपश्चरण के स्वामी होने से ज्ञान धर्मदमप्रभु कहलाते हैं ।।२६७।।।
ॐ ह्रीं मह प्रशमात्मने नमः ॥२६८॥ क्रोधादि रहित होने से आप प्रशसात्मा हैं ॥२६॥ ॐ ह्रीं ग्रह प्रशांतात्मने नमः ॥२६॥ प्राप परम शांतरूप होने से प्रशांतात्मा हैं ॥२६९।।
ॐ ह्रीं अह पुराण पुरुषोत्तमाय नमः ।।३००॥ अनादि काल से मोक्षस्थान में निवास करने से अथवा अनादि काल से सदा होने वाले तिरेसठ शलाका पुरुषों में उत्कृष्ट होने से पाप पुराण पुरुषोत्तम कहलाते हैं ।।३००॥
ॐ ह्रीं हूँ हमेशदनाय ? अमान प्रलोक पक्ष हो आपका चिह्न है इसलिए पापको महाशोकध्वज कहते हैं ।।३०१||
ॐ ह्रीं ग्रह अशोकाय नमः ।।३०२।। माप शोक रहित होने से अशोक हैं ॥३०॥
ॐ ह्रीं महं काय नमः ।।३०३॥ सबके पितामह होने से अथवा सबको सुख देने से आपको 'क' कहते हैं ॥३०३॥
ॐ ह्रीं ग्रह सृष्टाय नमः ।।३०४।। भक्त लोगों को स्वर्ग, मोक्ष, देने से प्राप सृष्टा है ।।३०४॥
ॐ ह्रीं ग्रहं परमविष्ट राय नमः ॥३०५।। आपका प्रासन कमल है अथवा कमल ही आपका सिंहासन है इसलिए आपको पविण्टर कहते हैं ॥३०५।।
ॐ ह्रीं अहं पद्मशाय नमः ॥३०६॥ लक्ष्मी के स्वामी होने से पाप पद्मश है ॥३०६।।
ॐ ह्रीं अहं पदम संभूतये नमः ॥३०७ विहार करते समय इन्द्र लोग आपके चरण कमलों के नीचे कमलों की रचना करते हैं इसलिए आप पद्म संभूति कहे जाते हैं ॥३०७॥
ॐ ह्रीं अहं पद्मनाभये नमः ॥३०८॥ कमल के समान सुन्दर नाभि होने स पचनाभि कहे जाते हैं ।।३०८।।
___ ॐ ह्रीं अहं अनुत्तराय नमः ॥३०६।। पाप से श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है अतएव अाप मनुत्तर कहलाते हैं ॥३०॥
ॐ ह्रीं अहं पद्मयोनये नमः ॥३१०॥ लक्ष्मी के उत्पन्न होने का स्थान होने से आप पद्मयोनि हैं ॥३१॥
ॐ ह्रीं आई जगद्योनये नमः ॥३११॥ धर्म रूप जगत की उत्पत्ति होने के कारण से प्राप जगद्योनि हैं ॥३११॥
ॐ ह्रीं प्रहं इत्याय नमः ।।३१२॥ ज्ञान गम्य होने से पाप इत्य हैं ॥३१सा ॐ ह्रीं मह स्तुत्याय नमः ॥३१३॥ सबके द्वारा स्तुति करने योग्य होने से प्राप स्तुत्य