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ममोकार प्रेम
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लिए पिताजी को चितित नहीं होना चाहिये । मेरी समझ में तो यही उचित जान पड़ता है कि पिताजी को अपना वचन पूर्ण करने के लिए माता कैकई की अभिरुचि के अनुकूल भरत को राज्य-तिलक कर देना चाहिए और मेरे लिए जो माता की प्राशा हुई है उसको मैं सानन्द पालन करने के लिए तत्पर हूं। क्या प्राप नहीं जानते हैं कि संसार में वे ही पुत्रपद' को प्राप्त हैं जो पिता के पूर्ण भक्त और सदैव माज्ञानुवर्ती हों प्रतएव मैं पिताजी के वचनों को प्राणप्रण से पूर्ण करने का उद्योग करूगा ।
___इतना कह कर रामचन्द्र ने उसी समय भरत के ललाट पर राज्यतिलक कर दिया और माप पिताजी के चरणों को नमस्कार का जपण भाई को साय लेकर वहां से चल दिये । पुत्र की यह अभूतपूर्व बीरता महाराज दशरथ नहीं देख सके । पुत्रों के जाते ही मूछित हो गये । रामचन्द्र जी वहां से चल कर अपनी माता के पास पहुंचे और उन्हें सादर नमस्कार कर माता से सविनय प्रार्थना की --'माता जो, हम पिता जी के वचनों को पालन करने के लिए बन जाते हैं। जब हम अपनी कहीं सुव्यवस्था पौर सुयोग्य प्रबंध कर लेंगे तब हम पापको भी ले जायेंगे। अतएच आप किसी प्रकार का दुःख न करना।"
इस प्रकार अपनी माता को समझाकर वे दोनों भाई जनकनन्दिनी सीता को साथ लेकर घर से निकलकर वन की पोर चल दिये । उनको जाते हुए देख प्रजा के बहुत से मनुष्य राम-लक्ष्मण के साथ हो लिए। उन्होंने उनको बहुत समझाया, और अपने साथ चलने से रोका पर उनको अपने युवराज का प्रगाष प्रेम वापिस कैसे जाने देता ? रामचन्द्र जो के बहुत रोकने पर भी वे लोग उनके पोछे पीछे ही चले जाते थे। कुछ दूर चल कर उन्हें एक अन्धकारमय भयानक अटवी मिली। वहीं एक बड़ी भारी और गहरी नदी बह रही थी। धीर वीर राम और लक्ष्मण तो नदी के पार हो गये, परन्तु और लोगों के लिए यह मसंभव हो गया । अन्त में जब उन्हें अपने नदी पार होने का कोई उपाय न सूझा तब उन्हें इनके वियोग रूप दुःख दशा में अपने स्थान को लौट पाना पड़ा। इसके अतिरिक्त ये बेचारे और कर भी क्या सकते थे।
जब भरत ने सब लोगों के साथ रामचन्द्रजी को न पाते हुए देखा तो उन्हे बड़ा दुःख हुमा । रे उसी समय माता के पास जाकर कहने लगे-"माताजी! मैं रामचन्द्र जी के बिना किसी प्रकार भी राज्य का पालन नहीं कर सकता प्रतः या तो उन्हें वापिस लाने का यल करो, नहीं तो मैं भी वन में जाकर मा ग्रहण करता है। मागे पाप जसा उचित समझो वैसा करो। मुझजा कहना था, वह कह चका।"
पत्रके ऐसे मावचर्य भरे वचन सुनकर उसे बहस चिता हई। वह उसी समय उठी मोर पत्र तथा प्रौर कितने ही सुयोग्य पुरुषों को साथ लेकर रामचन्द्र के पास जा पहुंची। रामचन्द्र ने अपनी माता कापागमन जानकर कुछ दूर जाकर उनके चरणारविन्वों को नमस्कार किया। भरत रामचन्द्र जी को देखते ही उनके पारों पर गिर पड़े और गद्गद् स्वर से प्रश्रपात करते हुए बोले-"महाराज ! मुझ पर दया कीजिए । पाप पलकर अपना राज्य सम्हालिए । यह राज्य शासन प्राप हो को शोभा देगा। पाप बल कर अपने परण-कमलों से सिंहासन को पोभित कीजिए । नाथ ! यदिमाप प्रयोध्या की मोर गमन नहीं करेंगे तो यह निश्चय समझ लीजिए कि मैं भी वहां नहीं रहूंगा। प्रापके बिना मुझे राज्य से कुछ प्रयोजन नहीं है।"
उत्तर में रामचन्द्र ने कहा-"भाई, तुम यह मत समझो कि मैंने माता से द्वेष करके वन में माना विचारा है किन्तु मुझे तो पिताजी के वचनों का पालन करना है। मैं प्राणप्रण से उनके वचन पूरे