Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 392
________________ जमोकार ग्रंथ उसके जन्म लेते ही दुर्जनों व शत्रुओं के घर में उत्पात और स्वजन तथा सज्जनों के प्रानन्द की सीमा नहीं रही। महाराज अरिदमन ने पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में बहुत उत्सव किया, दान दिया और पूजा प्रभाबना की। निमित्तज्ञानियों को बुलवाकर लग्न कुन्डली आदि बनवाई गई और तदनुसार ही उसका नाम श्रीपाल रख दिया गया। बालक दिनोंदिन शक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। राजारानी बड़े लाड़ प्यार से पुत्र का पालन करने लगे। जब श्रीपाल आठ वर्ष के हुए तब इनका मूजी बंधन पनयन संस्कार किया गया और विद्याध्ययन काल तक अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत देकर इनके पिता ने इन्हें पढ़ाने के लिए ग्रहस्थाचार्य को सौंप दिया। इनकी बुद्धि बड़ो तीक्षण थी और दुसरे इन पर गुरु की कृपा हो गई। इससे ये शो सो वर्षों में पत्र लिखकर अच्छे विद्वान बन गए कितने ही विषयों में इनको अरोक गलि हो गई । गुरुसेवा रूपी नाव द्वारा इन्होंने शास्त्र रूपी समद्र का बहुत मा भाग पार कर लिया तब गुरु की आज्ञा लेकर माता-पिता के समीप पाकर उनको योग्य विनयपूर्वक नमस्कार किया। मानापिता ने भी पुत्र को विद्यालंकृत, जानकर शुभाशीर्वाद दिया। अब श्रीपाल कुमार नित्यप्रति राज्य सभा में जाने लगे और राज्य कार्यों में विचार करने लगे। ___ एक दिन की बात है कि महाराज अरिदमन अपनी सभा में बैठे हुए थे कि इतने में श्रीराल कुमार भी बहाँ पाए और योग्य विनय करके बैठ गए। उस समय राजा ने अपनी वृद्धावस्था पौर श्रीपाल की योग्यता पर विचार कर इनको राजनीतिक कर देने का निश्चय कर लिया और शुभ लग्न में पुत्र को सब राज्य भार सौंपकर ग्राप एकांत स्थान में धर्म ध्यान पूर्वक-कालक्षेपण करने लग । कुछ समय के अनन्तर राजा परलोकगामो हुए जिससे राजा श्रीपाल इनके काका वीरदमन और माता कुन्दप्रभा आदि समस्त स्वजन व पुरजनों को अत्यन्त क्लेश पहुंचा पर उसे दूर करने के लिए प्रतिकार ही क्या हो सकता था? कर्मों की विचित्रता पर ध्यान देकर सबको संतोष करना पड़ा। राजा श्रीपाल अपने पिता की मृत्यु सम्बन्धी क्रिया कर चुकने के अनन्तर पुन: राज्यकार्य में दत्तचित हुए। प्रजा को उनके शासन की जैसी प्राशा थी श्रीपाल ने उससे भी बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम दिखलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उन्होंने किसी बात की कमी न रखी। इस प्रकार नीतिपूर्वक अपने पुण्य का फल भोगते हुए वे सुख से समय बिताने लगे। जिस समय श्रीपाल सुखपूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे और प्रजा का न्याय तथा नीति से पालन करते थे उस समय उनका ऐश्वर्य दुष्ट कर्म से सहन नहीं हुआ श्रीपाल जैसे कामदेव के शरीर में कुष्ट (कोढ़) रोग हो गया। सारा शरीर गलने लगा और शरीर में पीप, रुधिर प्रादि बहने लगा। समस्त शरीर में असह्य व्यथा होने लगो। यह अवस्था एक राजा श्रीपाल को ही नहीं थी किन्तु उनके निकटवर्ती सात सौ वीरों का भी यही हाल था। मंत्री सेनापति तथा अंगरक्षकों का सबका एक-सा हाल था। प्रजागण राजा श्रीपाल और उनके समीपवर्ती लोगों की यह अवस्था देखकर अत्यन्त दु:खी थे। दूसरे इनके शरीर की दुर्गन्ध से प्रति व्याकुल और कितने ही इस रोग के ग्रास बन जाते थे। इस बात से भी प्रजा प्रत्यन्त दुःखी थी परन्तु सब मनुष्य राजा से यह बात कहने में सकुचाते थे । अतएव कितने ही मनुष्य तो अपने-अपने घरों को छोड़कर बाहर चले गए और कितने ही बाहर जाने का उद्यम करने लगे। जब प्रजा के नगर छोड़कर चले जाने का वतांत शहर के गण्यमान्य पुरुषों के द्वारा श्रीपाल के काका वीरदमन को मालूम हुआ तो उन्होंने तत्काल ही श्रीपाल कुमार के पास जाकर पति ही नम्र और बिनीत वचनों से प्रजा की सब दुःख भरी कहानी कह सुनाई : तब राजा प्रजा के दुःख को सुनकर

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