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णमोकार ग्रंथ
बहुत व्याकुल हुए और प्रजा को इस दुःख से निवृत्त करने का अपने काका वीरदमन से प्रतिकार पूछने लगे।
वीरदमन बोले-राजन् ! यद्यपि मुझे कहने में संकोच होता है परन्तु आपने मुझसे पूछा है प्रतएव प्रजा के और मापके हित के लिए जो उपाय मुझे सूझा है उसे कहता हूं एक आशा है कि आप उस पर पूर्णतया विचार कर कार्य करेगें वह उपाय यह है कि यावत् आपके शरीर में असाता येदनीय के उदय जनित व्याधि वेदना का सद्भाव है तावत् यह राज्य कार्य किसी योग्य पुरुष के आधीन कर नगर के बाह्य उद्यान में निवास करें 1 जब साता वेननीय कर्म का उदय प्रा जाय अर्यात वह कुष्ट रोग मिट जाए तब पुनः प्राकर राज्य कार्य सम्हाल लेवें।'
वीरदमन की यह बात सुनकर श्रीपाल ने निष्कपट होकर कहा--'मूझे यह तुम्हारी सम्मति सब तरह से स्वीकार है एवं मेरा भी यही विवार है। अतएव जब तक मेरे असाता कर्म का उदय है तावत् मैं राज्य का भार आप ही वो देता हूं क्योंकि इस समय राज्य का कार्य सम्हाल लेने के योग्य प्राप ही हैं। रोगभूक्त होने पर मैं पूनः प्राकर राज्य सम्हाल लंगा। तब तक इस राज्य के पाप ही अधिकारी हैं इसीलिये मेरे वापिस आने तक प्रजा का न्याय और नीतिपूर्वक पालन-पोषण करते रहना और माता कुन्दप्रभा आदि की भी पूर्ण रूप से रक्षा करना।
__ इतना कहकर राजा श्रीपाल अपने सात सौ - वीरों को साथ लेकर नगर से बहुत दूर बाह्य उद्यान में जाकर रहने लगे।
आगे इसी कथा से सम्बन्ध रखने वाला मैनासुन्दरी का वृतान्त प्रसंग बनाने के लिए लिखते हैं - इसी प्रार्यखंड में मालव देश के अन्तर्गत उज्जैन नाम की प्रसिद्ध और मुन्दर नगरी है। उस समय उस नगरी में राजा पदुपाल शासन करते थे। इनके निपुण सुन्दरी प्रादि को लेकर एक से एक सुन्दर अनेक रानियाँ थी। सो निपुणसुन्दरी के गर्भ से दो कन्यायें हुई । एक का नाम सुरसुन्दरी और दूसरी का नाम मंनासुन्दरी था। सुरसुन्दरी जब यौवन सम्पन्न हुई तब एक समय राजा पदुपाल ने सुरसुन्दरी से पुछा- पत्री ! तेरा विवाह कहीं और किसके साथ होना चाहिए और त कौन-सा वर पमन्ट मो स्पष्ट कह दे।' लब सुरसुन्दरी बोली- 'मुझको तो कौशाम्बी नगरी के राजा का पुत्र हरिवाहन पसन्द है क्योंकि वह ही सब गुण सम्पन्न, रूपवान और बलवान मालूम होता है । अतएव मेरा उस ही के साथ सम्बन्ध हो जाना चाहिए ।' पुत्री की यह प्राकांक्षा सुनकर महाराजा पदुपाल ने शुभ मुहूर्त में पुत्री का यथेक्छित वर के साथ बड़े समारोहपूर्वक पाणिग्रहण करा दिया।
, अथानन्तर एक दिन जब छोटी पुत्री मैनासुन्दरी चैत्यालय से भगवान प्रादीश्वर स्वामी की पूजा कर भगवान के अभिषेक का जल लिए हए पिता के पास पाई तब राजा ने 'पापो, 'प्रामो ऐसा कहकर बैठने के लिये संकेत दिया। तब मैनामादरी विनय सहित भेंट. स्वकर गाजा के मन्मुख मनमोदक रखकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गई । राजा ने गंधोदक सहर्ष मस्तक पर चढ़ाया और पुत्री को भक्तियुक्त देखकर पति ही प्रेम पूर्वक मधुरालाप से कहने लगा-'हे पुत्री ! तू अपने मन के अनुसार रूपवान, पराक्रमी वर जो तुझे पसन्द हो सो आज मुझसे कह । सुरसुन्दरी के समान तेरा लग्न भी मैं तेरे इच्छित वर के साथ कर दूंगा।' पिता (राजा पदुपाल) का यह वचन मैनासुन्दरी के हृदय में वध जैसा घाय कर गया । वह सुनकर चुप हो गई। अपने पिता को इस बात का भी उत्तर न देकर मन ही मन में सोचने लगी कि पिताजी ने लज्जा शून्य ऐसे निष्ठुर बचन क्यों कहे ? क्या कुलीन कन्याएं कभी मुंह से वर