________________
णमोकार प्रथ
1
ऐसा कह कर वे आगे बढ़ और शीघ्र ही मस्तूल पर जा खड़े हुए। बड़े गौर से चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इतने में नीचे से दुष्टों ने मस्तुल को काट दिया । इससे वे (श्रीपाल ) बात की बात में समुद्र में जा पड़े और लहरों में ऊंचे नीचे होने लगे। यहां (जहाजों में ) कोलाहल मचा दिया कि मस्तुल टूट जाने से श्रीपाल जी समुद्र में गिर पड़े और अब उनका पता नहीं है कि लहरों में कहां गुम हो गए । जीवित हैं या मर गए। सबने शोक मनाया और धवल सेठ ने भी बनावटी शोक मनाना आरम्भ किया। वह कहने लगा-"हाय कोटि भट्ट ! तुम कहां चले गए ? तुम्हारे बिना यह यात्रा कैसे पूर्ण होगी | हाय जहाजों को अपनी भुजाओं के बल से चलाने वाले । लक्ष चोरों को बांध कर बन्धन से छुड़ाने वाले । हाय कहां चले गए ? हे कुमार ! इस अल्पायु में असीम पराक्रम दिखा कर क्यों चले गए | तुम्हारे बिना विपत्तियों में कौन हमारी रक्षा करेगा ? हा देव ! तूने यह रत्न दिखाकर क्यों छीन लिया ?" इत्यादि केवल ऊपरी मन से बनावटी रोने लगा । अन्तरंग में तो हर्ष के मारे फल कर कुप्पा हो गया था ।
३८४
जिस समय उस अबला रयणमंजूषा ने यह सुना कि स्वामी समुद्र में गिर गए हैं उसी समय बेसुध होकर वह भूमि पर मुर्छित होकर गिर पड़ी। तब सखी जनों ने शीतल उपचार कर मूर्छा दूर की तो सचेत होते ही "हे स्वामिन ! इस ग्रबला को छोड़कर तुम कहां चले गए, तुम्हारे विना यह जीवन मात्रा कैसे पूरी होगी ? हे स्वामिन ! अब यह अबला आपके दर्शन की प्यासी पपीहे की तरह से व्याकुल हो रही है । तुम्हारे बिना मुझे एक पल भी चैन नहीं पड़ता है । है जीव ! दयापालक स्वामिन ! दासी पर कृपा दृष्टि करो | मेरा चित्त अधीर हो रहा है। नाथ ! यदि मुझसे सेवा में कोई कमी हो गई थी तो मुझे उसका दण्ड देते । अपने आपको दुख सागर में क्यों डुबोया ? अब बहुत देर हो गई अब प्रसन्न हो जाओ और इस अबला को जीवन दान देदो, नहीं तो ये प्राण आपके ऊपर न्यौछावर है । हाय प्रभो। आपकी ही शरण में हूं। पार कीजिए।" इस प्रकार रयणमंजूरा ने घोर विलाप किया। उसका शरीर कुम्हला कर कुम्हलाएं पुष्प के समान प्रभावहीन हो गया। खान पान छूट गया तथा शृंगार भी। इस प्रकार उस सती को दुख से व्याकुल देख कर सब लोग यथासम्भव धेयें बंधाने लगे और पापी धवल सेठ भी बनावटी शोकाकुल होकर समझने लगा
な
इस
"हे सुन्दरी ! अब शोक छोड़ो। होनी अमिट है। इस पर किसी का वश नहीं है। संसार का सब स्वरूप ऐसा ही है । जो उपजता है वह नियम के अनुसार नष्ट हो जाता है। अब शोक करने से क्या हो सकता है ? अब यदि तू उसके लिए मर भी जाएगी तो भी वह तुझे नहीं मिलेगा। इस पृथ्वी पर बड़े चक्रवर्ती नारायणादि हो गए हैं परन्तु काल ने सबको ग्रास बना लिया। इसलिए शोक छोड़ो। हम लोगों को भी असीम दुख हुआ है परन्तु किस से कहें और क्या करें कुछ उपाय नहीं है ? प्रकार सबने बिचार कर समझकर रयणमंजूषा को धैर्य दिया । तब उस सती ने भी वस्तु स्वरूप का विचार कर किसी प्रकार शोक कम किया और अनादि निधन मंगल रूप लोक में उत्तम शरणाधार पंच परमेष्ठी मन्त्र का मन में श्राराधना करने लगी । खानपान की सुध न रही । यों ही दो चार दिन बीत गए । स्नान विलेपन और वस्त्राभूषण का ही ध्यान ही नहीं किया था । वह किसी से बात भी नहीं करती थी । न किसी की तरफ देखती थी। उसको तो केवल पंच परमेष्ठी का स्मरण और पति का ध्यान था । पतिव्रता उन जहाजों में इस प्रकार रहतो थी जैसे जल से कमल भिन्न रहता है। वह परमवियोगिनी इस प्रकार समय व्यतीत करने लगी ।
I