Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 408
________________ णमोकार ग्रंथ १८५ धवल सेठ के ये दिन बड़ी कठिनता से बीत रहे थे इसलिए उसने शीघ्र ही एक दुती को बुला कर रयणमंजूषा को डिगाने के लिए भेजा सो व्याभिचार की खान पापिनी दूती लोभ के वश होकर शीघ्र ही रयणमंजूषा के पास आ गई और यहाँ वहां की बात बनाकर कामोत्पादक कथा सुनाकर ग्राना कार्य सिद्ध करने के लिए कहने लगी "हे पुत्री ! धैर्य रखो। जो होना था सो हमा। गई बात का विचार ही क्या करना है ? हाँ यथार्थ में तेरे दुःख का क्या ठिकाना है। इस वारमावस्था में पति का वियोग हो गया है। इस बात की कुछ चिन्ता नहीं है परन्तु काम का जीतना बड़ा कठिन है। तु उम काम के बाणों को कैसे सहेगी जिस काम के वश होकर साधु और साध्वी ने रुद्र ब नारद की उत्पनि को जिस काम से पीड़ित होकर रावण ने सीता का हरण किया जिस काम के वश में और तो क्या देव भी हैं उस काम को जीतना बहुत कठिन है अब तू श्रीपाल का हठ छोड़कर इस परम ऐश्वर्यवान, रूपवान. धनवान सेठ को अपना पति बना ले । मरे के पोछे कोई मरा नहीं जाता है । ऐसी लज्जा से क्या लाभ, जो जिन्दगी के ग्रानन्द पर पानी डाल दे और वह तो धवल का नौकर था? सो जब मालिक ही मिल जाए तो नौकर की क्या चाह करना? मुझ तेरी दशा देखकर बहुत दुख होता है। अब न प्रसन्न हो और सेठ को स्वीकार कर तो मैं अभी जाकर उस सेठ को भी राजी कर ले पानी हूं मैं वृद्धाहं इस लिए मुझे संसार का अनुभव भली प्रकार है । तू अभी भोली नादान है। इसलिए मेरे वचन मानकर सुख से समय बितायो"-इत्यादि अनेक प्रकार से उस कुटिल दासी ने उसे समभाया परन्तु जिम नरह काले कम्बल पर पौर रंग नहीं चढ़ता उसी तरह सती के मन पर एक बात भी नही जमी। इस पापिन दती का जादू नहीं चला। वह कुलवती सती उस दूती के ऐसे निन्दनीय वचन सुननर क्रोध से कॉपने लगी और झिझककर बोली-"बस चुप रह । दुष्ट पापिन ? तेरी जीभ के सोटवाड़े वयों नहीं हो जाते हैं ? वह घयल सेठ मेरे पति का धर्म पिता और मेरे श्वसुर पिता समान है । क्या पिता और पुत्री का संयोग हो सकता है ? पापिन तुने जन्मान्तरों में ऐसे भीच कर्म किए जिससे कटनी रंडी हुई और न मालम तेरी क्या गति होगी? इस जन्म में रयणामंजषा का पति केवल श्रीपाल ही है तथा पुरुष मात्र उसको पिता, पुत्र व भाई तुल्य हैं । हट जा यहाँ से । मुझे अपना मुह मल दिखाना । शीघ्र ही यहां से चली जा, नहीं तो इसका बदला पाएगी।" इस प्रकार सुन्दरी ने जब उसे झिभकारा तव अपना सा मुह लेकर कांपती हुई वह पापिन सेठ के पास आई और बोली "हे सेठ ; वह वश की नहीं है । मुझे तो उसने बहुत अपमानित करके निकाल दिया । जो योड़ी देर और भी ठहरती तो न जाने मेरी वह क्या दशा करती। इसलिए आप जानो व पापका काम जाने । मुझसे तो हो नहीं सकता है।" दूती ऐसा उत्तर देकर चली गई। जब धवल सेठ ने दूती से यह कृत कार्य न हुम्रा जाना तब वह कामांव पापी निर्लज्ज होकर स्वयं उस सतो के निकट पहुंच और समीप बैठ कर विष-लपेटी छुरी के समान मीठे शब्दों में हस-हंस कर कहने लगा "हे प्रिय रणमंजुषा ; तुम भय मत करो । सुनो मैं तुमसे श्रीपाल की कथा कहता हूं। वह दास था उसको मैंने मोल लिया था वह कुलहोन और बड़ा प्रपंची, झूठा तथा निर्दयी चित था । ऐसे पुरुष का मर जाना ही अच्छा है। तू व्यर्थ उसके लिए इतना शोक कर रही है। अब उसका डर भी नहीं रहा है क्योंकि उसको गिरे हुए कई दिन हो चुके हैं। सो जलचरों ने उसके मृतक शरीर को खा लिया होगा। अब निःशंक हो जामो। तू निःशंक होकर मेरी प्रोर देख । टू मेरी स्त्री और मैं तेरा स्वामी हूं। मैं तुझको सब स्त्रियों में मुख्य बनाऊँगा और स्वप्न में भी तेरी इच्छा के विरुद्ध न होऊंगा । अब तू देर

Loading...

Page Navigation
1 ... 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427