Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 417
________________ ३६४ जमोकार यश करते और अनेकों जो अनाज्ञाकारी थे उनका पराभव करते हुये आज यहां प्रा पहुंचा है। उसकी सेना नगर के चारों ओर खडी है। उसके सामने किसी का गर्व नहीं रहा है सो उसने आपको भी प्राज्ञा दी है कि "लंगोटी लगा, कम्बल ओढ़, माथे पर लकड़ी का भार रख कांधे पर कुल्हाड़ी लेकर पाकर मिलो तो कुशल है अन्यथा क्षण भर से विध्वंस कर दूंगा.” इसलिए हे राजन् ! अब जो कुशल चाहते हो तो इस प्रकार से जाकर उससे मिलो नहीं तो आप जानो । पानी में रहकर मगर से बैर करके काम नहीं चलेगा।" राजा पदुपाल को दूत के वचनों से क्रोध आया और वे बोले-"इस दुष्ट का मस्तक उतार लो जो अबिनय कर रहा है ।" तब नौकरों ने आकर तुरन्त ही उसे पकड़ लिया और राजा को प्राज्ञानुसार दंड देना चाहा परन्तु मंत्रियों ने बाहा--"महाराज ! इसको मारना अनुचित है क्योंकि यह वेचारा अपनी तरफ से तो कुछ कह नहीं रहा है, इसके स्वामी ने जैसा कहा होगा वैसा ही कह रहा है । इसमें इसका कुछ भी दोष'नहीं है अतः यह छोड़ने योग्य है और हे महाराज ! यह कर्म चक्र बहुत ही प्रबल मालूम पड़ता है। इससे युद्ध करने में कुशलता नहीं है अपितु कहे अनुसार मिल लेना उचित है।" तब राजा ने दून को छुड़वाकर कहा कि तुम अपने स्वामी को कह दो कि मैं प्राज्ञा प्रमाण प्रागसे पाकर मिल लगा। यह मनकर दूत हपित होकर श्रीपाल के पास वापिस गया और यथायोग्य वात कह दी कि महाराज पदपाल आपकी आज्ञानुसार मिलने को तैयार हैं। तब श्रीपाल ने मैनासुन्दरी से कहा-"प्रिये ! राजा तुम्हारे कहे अनुसार मिलने को तैयार है। अब उन्हें अभय दान देना ही योग्य है । मैनासुन्दरी ने कहा-"पापको इच्छा हो सो कीजिए, मुझे भी स्वीकार है।" श्रीपाल ने पुनः दूत को बुलाकर राजा पदुपाल के पास संदेशा भेजा कि पाप चिंता न करें और अपने दल-बल सहित जैसाकि राजाओं का व्योहार है, उसी प्रकार से मिलें।" सो दुत ने जाकर राजा पदुपाल को यह संदेश सुनाया । वह सुनकर राजा बहुत हर्षित हुग्रा और दूत को बहुत सा परितोषिक देकर विदा किया तथा प्राप मंत्रियों को संग लेकर बड़े समारोह के साथ मिलने को चला। जब पास पहुंच गए तब राजा पदुपाल हाथी से उतर कर पैदल चलने लगे सो श्रीपाल भी श्वसुर को पैदल पाते हुए देखकर सन्मुख गये और दोनों परस्पर कंठ से कंठ लगाकर मिले। दोनों को बहुत प्रीति और प्रानन्द हुप्रा परन्तु राजा पदुपाल को संदेह हो गया इसीलिए वह एकदम श्रीपाल के मुंह की ओर देखने लगा परन्तु पहचान न सका। तब वह बोला-'हे स्वामिन् ! प्रापका देखकर मुझे बहुत संदेह उत्पन्न होता है परंतु मैं अब तक आपको पहिचान नहीं सका हूं । पाप कौन हैं ?" __तब श्रीपाल जी हंसकर बोले-"महाराज ! मैं आपका लघु जवाई श्रीपाल हं जो मैनासुन्दरी से बारह वर्ष का प्रण करके विदेश गया था सो प्राज आया हूं।" यह सुनकर राजा फिर से श्रीपाल जी को गले से लगाकर और परस्पर कुशल क्षेम पूछकर हर्षित हुए। आनन्द भेरी बजने लगी, फिर राजा ने मैनासुन्दरी से कहा कि है पुत्री ! तू क्षमा कर । मैंने बड़ा अपराध किया है। तू सच्ची धर्म धुरंधर शीलवती सती है। तेरी प्रशंसा कहाँ तक करूं? मैना सुन्दरी ने सन्तुष्ट होकर पिता को शिर नवाया। फिर राजा और भी पुत्रियों (रयणमंजूषा पादि से) से मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ और संघ को लेकर नगर में गया। नगर में शोभा कराई गई।

Loading...

Page Navigation
1 ... 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427