Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 415
________________ २६२ पमोकार प्रय कर ज्यों ही एक दीर्घ उश्वास ली कि उसका हृदय फट गया और प्राण पखेरू उड़ गए सो पाप के उदय से सातवें नरक में गया । यहाँ श्रीपाल को सेठ के मरने का बहुत दुःख हुप्रा । सेठानी के पास जाकर उसने बहुत रुदन किया और पश्चात् कहने लगा-"माता ! होनी अमिट है। तुम दुःख मत करो मैं प्राज्ञाकारी हूं । जो प्राज्ञा होगी सो हो करूंगा। यहां रहो तो सेवा करू और देश व घर पधारना चाहो तो वहां पहुंचा दूं । सब द्रव्य मैं तुम्हें देता हूं। तुम किचित् शंका मत करो । मैं तुम्हारा पुत्र हूं।" तब सेठानी बोली- हे पुत्र ! तुम अत्यन्त कृपालु और विवेको हो । जो होता था सो हुमा । पापी पुरुष का संग छूट गया । अब प्राज्ञा दो तो मैं घर जाऊँ।" श्रीपाल ने उसकी इच्छानुसार प्रणाम कर उसको विंदा किया और स्वयं वहीं दोनों स्त्रियों सहित सुख से रहने लगा । अब इनकी कीर्ति रूपी पताका चारों तरफ फहराने लगी । वहाँ रहते हुए इन्होंने कुडलपुर के राजा मकरकेतु की कन्या चित्ररेखा, कंचनपुर के राजा वयसेन की विलासमती ग्रादि नो सौ कन्याएँ, कुंकुमपुर के राजा यशसेन की श्रृंगारगौरी आदि सोलह हजार कन्याएँ, कोकल देश को दो हजार कन्याएँ. मेवाड़ की सौ और तैलंग देश की एक हजार कन्याएँ ब्याही । श्रीपाल का इन बहुत-सी रानियों के साथ कोड़ा करते हुए बहुत सुख से समय व्यतीत होता था। अघानंतर एक दिन राजा श्रीपाल रात को सुख को नींद लेकर सो रहे थे कि अचानक इनकी नींद खुल गयी और मैनासुन्दरी की सुप में वेसुध हो गये। वे सोचने लगे-पोहो ; अब तो बारह वर्ष में योड़े ही दिन शेष रह गये हैं सो यदि मैं अपने कहे हुए नियत समय पर नहीं पहुँचूगा तो वह सती स्त्री नहीं मिलेगी इसलिए अब शीघ्र ही यहां से चलना चाहिए क्योंकि मुझे जो इतना ऐश्वर्य प्राप्त हम्रा है यह सब उसी का प्रभाव है। मैं तो यहां सुख भोग और वह वहां पर मेरे विरह में सन्तप्त रहें यह उचित नहीं है-इस विचार में पूरी रात्रि हो गई और श्रीपाल ने भी चलने का पूर्ण निश्चय कर लिया। प्रातकाल होते ही नित्य क्रिया से निवृत होकर वे राजा के पास गये और सब वृतान्त जैसा का तसा कह सुनाया पौर घर जाने की प्रामा मांगी। तब राजा सोचने लगे कि जाने की आज्ञा देते हुए तो मेरा मन दुखता है परन्तु हठात् रोके रहने से इनका जी दुखेगा प्रतएव रोकना व्यर्थ है-ऐसा विचारकर पूत्री को बहुत से वस्त्राभूषण पहनाकर और बाकी सब श्रीपाल की स्त्रियों को वस्त्राभषण पहनाकर उन्हें हित शिक्षा देकर विदा किया। श्रीपाल जी वहां से विदा होकर मार्ग में प्राते हुए देशों के राजामों की कन्याओं को ब्याइते हुए अपनी बहुत सी रानियों पर बहुत बड़ी सेना सहित चलते चलते उज्जनी के उद्यान में पाए और वहीं कटक सहित विश्राम किया। जब रात्रि हो गई और सब लोग जहां तहाँ सो गये तब श्रीपाल ने विचारा कि मैंने बारह वर्ष का वादा किया था सो माज ही वह अष्टमी का दिन है। यदि मैं आज उस सती सुन्दरी से न मिलूंगा तो वह प्रभात होते ही दीक्षा ले लेगी और फिर समीप पाकर वियोग हुना तो बड़ा दुःल होगा । इसी चिन्ता से उनका चित्त विह्वल हो गया और एक एक क्षण बर्ष भर के समान व्यतीत होने लगा। निदान जब चिसन रुका तब महाबली श्रीपाल प्रकेले ही प्रद्धरात्रि को माता के महल की पोर हो लिए। पब महल के द्वार पर पहुँचे तो क्या सुनते हैं कि प्राणप्रिय मैनासुन्दरी हाथ जोड़े खड़ी हुई सास से कह रही है कि-माताजी आपके पुत्र जी बारह वर्ष का प्रण करके विदेश गये थे सोपान वह पवधि पूरी हो रही है परन्तु अब तक न तो वे स्वयं ही पाए और न ही किसी प्रकार का अलोक ही भेणा सो पब प्रातःकाल ही जिन दीक्षा लूगी। इतने दिन मेरे भाभा ही प्राशा में व्यर्थ गए।

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