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णमोकार ग्रंथ
राजा ने श्रीपाल का अभिषेक किया और सब रानियों समेत वस्त्राभूषण पहिनाएं। इस प्रकार श्वसुर जवाई मिलकर सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे। इस प्रकार सुखपूर्वक रहते हुए श्रीपाल को बहुत समय बीत गया । एक दिन बैठे-बैठे उनके मन में विचार उत्पन्न हुआाकि जिस कारण विदेश निकले थे वह तो कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ अर्थात् पिता के कुल की प्रख्याति नहीं हुई। मैं अभी पर राजधानी में हूं और वहीं राज जवांई का पद मुझ से लगा हुआ है अतएव ग्रव अपने देश में चलकर अपना राज करना चाहिए। यह सोचकर श्रीपाल जी पदुपाल के निकट गये और स्वदेश जाने की आज्ञा मांगी। राजा ने इनकी इच्छा प्रमाण विलषित होकर प्राज्ञा दी ।
श्रीपाल मैना सुन्दरी यादि श्राठ हजार रानियों और बहुत सेना हाथी, घोड़े, पयादे आदि सहित उज्जैन से विदा हुए। श्रीपाल जी इस प्रकार विभूति सहित स्वदेश चंपापुर के उद्यान में प्राये और नगर के चहुं ओर डेरे डलवा दिए। सो नगर निवासी इस पार सेना को देखकर उद्वेग से भर गये । श्रीपाल जी विचारने लगे कि इसी समय नगर में चलना चाहिए। सो ठीक ही है-बहुत दिनों से बिछुड़ी हुई प्यारी प्रजा को देखने के लिए ऐसा कौन निर्दयी चित्त होगा जो अधीर न हो जाये, सभी हो जाते हैं ।
तब मंत्रियों ने कहा - "स्वामिन् । एकाएक मिलना ठीक नहीं है। पहले संदेश भेजिये और यदि इस पर महाराज वीरदमन सरल चित्त से ही आप से आकर को ठीक है फिर कुछ झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है और यदि कुछ शल्य होगी तो भी प्रगट हो जायेगी ।" श्रीपाल को यह मंत्र अच्छा लगा और उन्होंने तत्काल दूत बुलाकर उसे सब बात समझाकर वीरदमन के पास भेज दिया । दूत ने जाकर वीरदमन से कहा- "महाराज महावीर, भाग्यशाली श्रीपाल बहुत वैभव सहित ग्रा पहुंचे हैं सो बाप जाकर उनसे मिलो और उनका राज उनको वापिस दे दो ।'
यह सुनकर कुदाल प्रश्न के अनन्तर वीरदमन ने दूत से उत्तर में कहा - "रे दूर! तू जानता है कि राज्य और बल्लभा भी कोई क्या मांगने से दे देता है, कदापि नहीं । ये तो बाहुबल से ही प्राप्त होती हैं। जिस राज के लिए पुत्र पिता को, भाई-भाई को और मित्र मित्र को मार डालते हैं वह राज्य क्या मैं दे सकता हूं कदापि नहीं यदि उसमें वल होगा तो मैदान में ले लेगा ।"
यह सुन दूत नमस्कार कर वहां से चल दिया और जाकर श्रीपाल से समस्त वृतान्त कह दिया कि वीरदमन ने कहा है कि संग्राम में आकर लड़ो और यदि वल हो तो राज्य ले लो श्रीपाल जी को दूत के द्वारा यह समाचर सुनते ही क्रोध उत्पन्न हो माया । उन्होंने तुरंत हो सेनापति को आज्ञा दी। प्राज्ञा के होते ही सेना तैयार हो गई। उधर से वीरदमन भी सेना लेकर युद्ध के लिए निकल पड़े। दोनों श्रोर
योद्धाओं को मुठभेड़ हो गई। घोर युद्ध होना प्रारंभ हुआ। बहुत समय पर्यन्त युद्ध होने पर भी दोनों में से कोई भी सेना पीछे नहीं हटी तब दोनों श्रोर के मंत्रियों ने यह देख कर कि देश का सर्वनाश हुया जाता है अपने-अपने स्वामियों से कहा कि हे राजन् इस प्रकार लड़ने से किसी का भी भला नहीं होगा । अच्छा यह है कि आप दोनों आपस में युद्ध करके लड़ाई का फैसला कर लें।" तो यह विचार दोनों को रुचिकर हुआ और दोनों सेनाओं को रोक कर परस्पर ही युद्ध करना निश्चित करके वे काका और 'करते भतीजे रणक्षेत्र में आ गये। दोनों की मुठभेड़ हो गई और भीषण युद्ध हुश्रा । जब युद्ध हुए बहुत देर हो गई और किसी के सिर विजय मुकुट नहीं बंधा तो शस्त्र छोड़कर वे मल्ल युद्ध करने लगे सो बहुत समय तक तो यों ही लिपटते और लौटते रहे परन्तु जब बहुत देर हो गई तब श्रीपाल ने वीरदमन के दोनों पांव पकड़कर उठा लिया और चाहा कि पृथ्वी पर दे मारे लेकिन उनके मन में दया आ गई