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णमोकार प्रप
मत कर, जो कहना हो दिल खोलकर कह दे। मैं सब कुछ कर सकता है। मेरे द्रव्य का भो कुछ पार नहीं है । राजाओं के यहां भी जो सुख नहीं है पहले यहा। रेबल तेरी प्रसन्नता की हो कमो है सो इसे पूर्ण कर दे" इत्यादि नाना प्रकार से वह दुष्ट बकने लगा। उस समय उस सती का दुःख वही जानती थी क्योंकि शीलवती स्त्रियों को शील से प्यारी वस्तु संसार में कुछ नहीं होती। वे शील की रक्षा करने के लिए प्राणों को भी न्यौछावर कर देती हैं । वह बोली
"हे तात ! आप मेरे स्वामी के पिता हो और मेरे श्वसुर । श्वसुर और पिता में कुछ अन्तर नहीं होता। मैं आपकी पुत्री हूं। चाहे अचल सुमेह चलायमान हो जाए पर पिता पुत्री पर कुदृष्टि नहीं कर सकता । प्रथम मेरे कम ने मेरे भरतार का वियोग कराया और अब दूसरा उससे भी कई गुणा दुःख यह पाया। यदि कोई और यह कहता तो पापसे पुकार करती। आपकी पुकार किससे करू ? अपने कुल व धर्म को देखो। बड़े कुलवानों का धर्म है कि अपने और दूसरों के शील की रक्षा करें। देखो रावण व कीचक प्रादि पर स्त्री की इच्छा कर अपशय बोध कर नरक को चले गये। इसीलिए हे पिता जी ! अपने स्थान को जाओ और मुझ दीन को दुःखी मत करो कृपा करो और यहां से पधारो।" परन्तु जैसे पित्त ज्वर वाले को मिठाई भी कड़वी लगती है। उसी तरह काम ज्वर वाले को धर्म वचन कहाँ अच्छे लगते हैं। निर्लज्ज फिर भी कामातुर हुअा यदा-तद्वा बकने लगा। उस सती ने जब देखा कि यह दुष्ट मीति से नहीं मानता और यह अवश्य ही बलात मेरा शरीर स्पर्श करेगा। तब उसने क्रोध से भंयकर रूप धारण कर कहा
'रे दुष्टः पापी ! तेरी जिल्हा क्यों नहीं गल जाती ? हे नीच बुद्धि निशाचर । तुझे ऐसे पूणित शब्दों को कहते हुए लज्जा नहीं आती है ? हे धीठ ! अबम क्रूर। तू पशु से भी महान् पशु है । क्या तेरी शक्ति है जो शील धुरंधर स्त्री का शील हरण कर सकेगा? तू और चाहे सो कर सकता है । परन्तु मेरे शील को कभी नहीं बिगाड़ सकता है। श्रीपाल ही मेरा स्वामी है। अन्य सभी पिता, भ्राता के समान हैं। हे निर्लज्ज । मेरे सामने से हट जा नहीं तो अब तेरी भलाई नहीं है ।" बह पापी इससे नहीं डरा और आगे को बढ़ा। यह देख उस सती को चेत न रहा। कुछ देर तक चित्र लेखवत् रह गई । परन्तु थोड़ी देर में वह जोर से पुकारने लगी-- "हे दोन बन्धु ! दया सागर ! शरणागत प्रतिपालक ! इस अधर्मी निर्लज्ज सेठ के अन्याय से मेरी रक्षा करो।" इस प्रकार भगवान की स्तुति कर रही थी कि इतने में उसके पुण्य के प्रभाव से नहीं किन्तु उस सती के अखण्डशील के प्रभाव से वहा तत्काल जल देव व जलदेवी उपस्थित हो गये और उन्होंने धवल सेट की मसक बाँधली तथा गदा से बहुत मार लगाई । अखिों में बालू भर दी। मुख काला कर दिया। इत्यादि अनेक प्रकार से उसकी दुर्दशा की और बहुत ही दंड दिया । सब लोग इस घटना को देखकर एक दूसरे के मुंह की तरफ देखने लगे। बचावें किससे क्योंकि मार ही मार दिख रही थी, परन्तु मारने वाला कोई दृष्टिगोचर नहीं होता था । अन्त में मंत्री लोगों ने यह विचार कर कि कदाचित देवी चरित्र हो, इसके सतीत्व-धर्म से धर्म सहायक हुआ हो, रमणमंजूषा के पास माए और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-“हे कल्याण रूपिणी पतियते । धन्य है तेरे शील के माहात्म्य को। हम लोग तेरे महात्म्य को, गुणों की महिमा को बिल्कस कहने में समर्थ नहीं हैं । तू धर्म की सेवक और जिन शासन के व्रतों में लवलीन है। तेरे भावों को इस दुष्ट ने न समझकर अपनी नीचता दिखाई भब हे पुत्री ! दया करो। इस समय केवल इस पापी का बिनाश नहीं होता है। परन्तु हम सब का भी नाश हुआ जाता है। सब अब तेरी शरण में है।"