Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 412
________________ णमोकार मंथ ३९ सेठ को यह उपाय बहुत रुचिकर लगा। वह मंत्रो को बुद्धि की प्रशंसा करने लगा और कहने लगा-"इस काम में बिलम्ब नहीं करना चाहिए । कारण यह है कि शत्रु को अवसर न मिलने पाए नहीं तो न मालूम वह क्या कर डालेगा?" ऐसा कार्य न करने के लिए अन्यान्य मन्त्र गणों ने सेठ को बहुन समझाया परन्तु उसने किसी को न मानी और भांडों को बुलाकर उन्हें द्रव्य का लोभ दे समझार बुझाकर राजसभा में भेज दिया। वे सब मिलकर राजसभा में गए और राजा का यथायोग्य प्रणाम कर उन लोगों ने पहले तो अपनी नकलें आदि करके राजा से बहुत सा पारितोषिक प्राप्त किया। पश्चात् चलते समय सब परस्पर एक-दूसरे का मुंह देख कर अंगुलियों से श्रीपाल की तरफ संकेत करके बातें करने लगे । यों ही ढोंग बनाने पर थोड़ी ही देर में ज्यों ही श्रीपाल जो राजा की तरफ से उन लोगों को बीड़ा देने लगे त्यों ही सबके सब भाँड हाय-हाय करके उठ पड़े और श्रीपाल को चारों मोर से घेर लिया कोई उन्हें बेटा कहता कोई पोता कोई पड़पोता, कोई भतीजा, कोई भानजा और कोई पति-इस तरह कह कह कर कुशल पूछने लगे और राजा को प्राशीर्वाद देकर बलेंइयां लेने लगे। कहने लगे-"प्रहा। प्राज बड़ा ही हर्ष का समय है जो हमें प्यारा बेटा हाथ लगा । ह राजन् ! तुम युग-युगांतर तक जोवो। धन्य हैं प्रजापालक जो हम दोनों को पुत्र दान दिया है।" यह विलक्षण घटना देखकर राजा ने भांडों से कहा-"तुम लोग यथार्थ वृतान्त वर्णन करो कि यह क्या बात है नहीं तो एक-एक को शूली पर चढ़वा दूंगा।" तब वे भांड दीन हो हाथ जोड़कर बोले-“महाराज दीनानाथ ! अन्नदाता ! यह पुत्र हमारा है । मेरी स्त्री के दो बालक थे तो एक तो यही है और दूसरे का पता नहीं था। हम सब लोग समुद्र में एक नाव में बैठे हुए आ रहे थे कि तूफान से वह नाव फट गई और हम सब लोग लकड़ा की पट्टियों के सहारे कग्निता से किनारे लगे और तो सब मिल गए परन्तु केवल एक लड़का नहीं मिला मो हे महाराज ! आपके दर्शन से द्रव्य और ये दोनों मिल गए।" भांडों के कथन को सुनकर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ कि हाय मैंने बिना देखे और कुल, जाति व वंश पूछे बिना अपनी कन्या ब्याह दी । मह बड़ा पापी है जिसने अपना कुल प्रगट नहीं किया। फिर वह सोचने लगा कि नहीं इसमें भी कुछ भेद अवश्य होगा क्योंकि जिस भांति श्रीगुरु ने कहा था इसी भांति यह प्राप्त हुआ है और हीन पुरुष कैसे समुद्र पार कर सकता है। इस बात के अतिरिक्त इन भांडों से इसका रंग रूप और आचरग बिल्कुल मिलता नहीं है। देव जाने क्या भेद है ? फिर कुछ सोचकर वह श्रीपाल जी से पूछने लगा- "हे परदेशी ! तुम सत्य कहो कि कौन हो और भांडों से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?" तब श्रीपाल ने सोचा कि यहाँ मेरे वचन को साक्षी क्या है ? ये बहुत हैं और मैं अकेला हूं। बिना साक्षी के कहने से न कहना ही अच्छा है । यह सोचकर यह धीर-वीर निर्भय होकर बोला"राजन् ! इन लोगों का कथन सत्य है । ये ही मेरे माता-पिता और स्वजन सम्बन्धी हैं।" श्रीपाल के कथन से राजा की क्रोधाग्नि तीव्र हो गई और उन्होंने चांडालों को बुलाकर इनको शूली पर चढ़ा देने की प्राशा दे दी। राजा की प्राज्ञा ये चांडालों ने श्रीपाल को बांध लिया मोर सूली देने के लिए चले तब श्रीपाल सोचने लगे कि यदि मैं चाहूं तो इन सबका क्षपा भर में संहार कर डाल परन्तु कर्म पर क्या वश है इसीलिए उदय में पाए सब कर्मों को इसी जन्म में सहन कर लूं जिससे फिर कोई कर्म आगे के लिए बाकी न रहे और न उदय में पाए । देखू क्या-क्या उदय में पाता है? इस

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